मूलाचार (पूर्वार्ध) - इस महान् ग्रन्थ मूलाचार की अनेक विशेषताएँ हैं। पहली बात तो यह कि यह सबसे प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार, चरित्र-साधना और उनके मूलगुणों का क्रमबद्ध प्रामाणिक विवरण है। यह ग्रन्थ लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व रचा गया है। ग्रन्थकार हैं- आचार्य वट्टकेर। जिन्हें अनेक विद्वान आचार्य कुन्दकुन्द के रूप में भी जानते हैं, क्योंकि प्राचीन टीकाओं और हस्तलिखित प्रतियों में इसके कर्ता का नाम आचार्य कुन्दकुन्द उल्लिखित है। दूसरी बात यह है कि प्राकृत की अनेक हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करके परम विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने इसका सम्पादन तथा भाषानुवाद किया है, मूल ग्रन्थ का ही नहीं, उस संस्कृत टीका का भी जिसे लगभग 900 वर्ष पूर्व आचार्य वसुनन्दी ने आचारवृत्ति नाम से लिखा। तीसरी विशेषता इस प्रकाशन की यह है कि सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, विद्वद्वर्य पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री और डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य जैसे विद्वानों ने मिलकर परिश्रमपूर्वक पाण्डुलिपि का वाचन किया, संशोधन सुझाव प्रस्तुत किये, जो माताजी को भी मान्य हुए। ग्रन्थ अधिक निर्दोष और प्रामाणिक हो इसका पूरा प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थमाला सम्पादक मण्डल के विद्वान विद्यावारिधि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने भी प्रथम भाग में 'प्रधान सम्पादकीय' लिखकर इस कृति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया है। आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी के विपुल ज्ञान, परिश्रम और साधना का निर्मल दर्पण है यह ग्रन्थ माताजी का प्रयत्न रहा है कि ग्रन्थ की महत्ता और इसका अर्थ जिज्ञासुओं के हृदय में उतरे और विषय का सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें कृतार्थ करे, इस दृष्टि से उन्होंने सुबोध भाषा अपनायी है जो उनके कृतित्व की विशेषता है। भूमिका में उन्होंने मुख्य-मुख्य विषयों का सुगम परिचय दे दिया है। पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के रूप में सम्पूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित है। आशा है, साधुजन, विद्वानों तथा स्वाध्यायप्रेमियों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।
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