उलटबाँसी - सहज लेकिन अलग भावभूमि पर खड़ी कथावस्तु के कारण अपने समकालीनों में दूर से पहचान ली जानेवाली कविता का यह दूसरा कथा-संग्रह 'उलटबाँसी' जीवन-मूल्यों में हो रहे परिवर्तनों के द्वन्द्व के बीच आत्मनिर्भरता के विश्वास को रेखांकित करता है। तेज़ रफ़्तारवाले समय और बदलते परिवेश में नये स्त्री-सत्यों का अन्वेषण करतीं ये कहानियाँ स्त्री-मुक्ति का एक समानान्तर संसार भी बुनती हैं। इस संग्रह की कई कहानियाँ उस सार्वभौम भगिनीवाद के उत्कर्ष की कहानियाँ हैं जो मानता है कि वर्गगत, वर्णगत, धर्मगत और नस्लगत विडम्बनाओं की भुक्तभोगी होने के बावजूद विश्व की प्रायः सभी स्त्रियों में एक अव्यक्त-सा बहनापा पलता है। इस बृहत्तर भावबोध और नये परिवार की अवधारणा ही इन कहानियों का मर्म है। ये कहानियाँ आधुनिकता और परम्परा के 'जिरह' से उपजी ऐसी उलटबाँसियाँ हैं जो न सिर्फ़ पुरानी रूढ़ियों को चुनौती देती हैं, उनके बरअक्स आधुनिक युगबोध का एक नया समाजशास्त्र भी रचती हैं। वह भी ज़िन्दगी के इतने क़रीब कि पाठकों को अपना सा लगे।
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