प्रसंगतः - 'प्रसंगतः' में संगृहीत सामग्री के विषय ऐसे तो हैं ही जिनसे अमृता भारती वर्षों से निरन्तर उलझती रही हैं। साथ ही ऐसे विषय-सन्दर्भ भी हैं जिनकी चुनौतियों से किसी भी सजग और समर्थ समकालीन लेखक के लिए कतराना असम्भव है। इसमें साहित्य की विभिन्न विधाओं—निबन्ध, पत्र, व्यक्तिचित्र, एकालाप डायरी आदि के माध्यम से लेखक और लेखन की प्रकृति, परिवेश और उसकी स्थिति तथा सम्बन्धों का परिष्कृत और विलक्षण विवेचन सम्प्रेषण है। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि 'प्रसंगतः' का गद्य ऐसे निखार और शिखर पर है जो निस्सन्देह दुर्लभ है। इस पुस्तक में वह सब कुछ मौजूद है जो सर्जना के स्तर पर समय तथा साहित्य के कई आयामों को बड़ी गम्भीरता, लेकिन सहजता के साथ उजागर करता है और पाठक को संवाद के लिए आमन्त्रित भी करता है। दूसरे शब्दों में, एक निश्चित काल और इतिहास में 'प्रसंगतः' मनुष्य, समाज और उसकी नियति की खोज की सार्थक प्रक्रिया और आत्मीय स्वीकार है। उन तमाम प्रश्नों को समझने और उनके उत्तर पाने की 'प्रसंगतः' कोशिश है जो सामयिक और शाश्वत दोनों हैं।
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