Hindustaniyat Ka Rahi

Haider Ali Author
Hardbound
Hindi
9789387919716
1st
2020
152
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हिन्दुस्तानीयत का राही - 'ज़ाहिदे-तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना और काफ़िर ये समझता है कि मुसलमान हूँ मैं।' मगर मज़े की बात यह है कि न मैं काफ़िर हूँ, न मुसलमान। मैं तो एक हिन्दुस्तानी हूँ और इसके सिवा मेरी कोई और पहचान नहीं हैं। क्या रसखान का नाम काटकर कृष्ण भक्ति काव्य का इतिहास लिखा जा सकता है? क्या तुलसी की रामायण में आपको कहीं मुग़ल दरबार की झलकियाँ दिखाई नहीं देती? क्या आपने अनीस के मरसिये देखे हैं? देखे तो आपको यह भी मालूम होगा कि इन मरसियों के पात्रों के नाम भले ही अरबी हों परन्तु वह है अवध के राजपूत। क्या आपने नज़ीर अकबरबादी की नज़्म 'होली' पढ़ी है? क्या आपने गोलकुंडा के कुतुबशाही बादशाहों की मस्जिद देखी है? उसके खम्भे कमल के तराशे हुए फूलों पर खड़े हैं और उसकी मेहराबों में आरती के दीये खुदे हुए हैं। क्या आप जानते हैं कि महाकवि अमीर ख़ुसरो की माँ राजपूतानी थी? क्या आपने देखा है कि मुहर्रम पर दशहरे की छाप कितनी गहरी है? हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने हिन्दू संस्कृति और सभ्यता को अपने ख़ूने-दिल से सींच कर भारतीय संस्कृति और भारतीय सभ्यता बनाने में बड़ा योगदान दिया है। जिस प्रकार कबीर और प्रेमचन्द ने वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति या सम्प्रदाय से ऊपर उठकर इन्सानियत की डोर को पकड़ा था उसी प्रकार राही ने भी इसे मज़बूती से थामा था। और उनकी ये ज़मीन सिर्फ़ मानवीयता की ज़मीन थी। वो हिन्दुस्तानीयत यानी भारतीय संस्कृति और उसके मूल्यों को बचाने के लिए तैयार की गयी ज़मीन थी। राही का हर क़दम हिन्दुस्तानीयत की पहचान है। -(इसी पुस्तक से...) अन्तिम आवरण पृष्ठ - “जंग के मोर्चे पर जब मौत मेरे सामने होती है तो मुझे अल्लाह याद आता है, लेकिन उसके बाद मुझे फ़ौरन काबा नहीं, अपना गाँव गंगौली याद आता है, क्योंकि वह मेरा घर है, अल्लाह का घर काबा है लेकिन मेरा घर गंगौली है..." इस बात को ध्यान में रखकर कमलेश्वर कहते हैं— “मैं नहीं समझता कि इससे बड़ी राष्ट्रीय अस्मिता की कोई घोषणा की जा सकती है, जिसे अकबर के दीने-इलाही में भी नहीं बाँधा जा सकता।” राही मासूम रज़ा मुझसे बड़े थे। उनकी शख़्सियत में बग़ावत का रूझान बचपन के ज़माने में भी था। सख़्त से सख़्त और कड़वी से कड़वी बात कहने की हिम्मत थी। उनको रवायतों को तोड़ने में मज़ा आता था। किसी से मरऊब न होना... किसी के आगे सिर नहीं झुकाना, किसी के आगे न गिड़गिड़ाना मासूम भाई का बुनियादी किरदार था। बड़े से बड़े अदीब या शायर या प्रोड्यूसर या डायरेक्टर से उनके ताल्लुक़ात बराबरी के थे। यानी बग़ावत की ख़ुशबू थी, एक ख़ुद्दारी थी..। उनका ये अंदाज़ उम्र भर क़ायम रहा। —सैयद शाहिद मेहदी उर्दू और फारसी के विद्वान तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया के पूर्व कुलपति

हैदर अली (Haider Ali )

डॉ. हैदर अली - हिन्दी-उर्दू साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले युवा लेखक हैदर अली का जन्म गाँव रटौल, (बागपत), यू.पी. में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के मिशनरी स्कूल से। बी.ए.

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