अराजक उल्लास - कृष्ण बिहारी मिश्र के इन निबन्धों को व्यक्तित्वपरक निबन्ध कहना तो ठीक है, लेकिन केवल ललित कह देने से उनके समर्थतर पक्ष की उपेक्षा हो जाती है। भाषा का लालित्य नहीं, आंचलिक जीवन से रागात्मक सम्बन्ध की समृद्धता ही उनका असल ऊर्जा स्रोत है। और इस राग-बन्ध में कहीं भावुकता नहीं है : ग्रामांचल के प्रति कृष्ण बिहारी जी का जो ममत्व है वह उन्हें उस जीवन की वर्तमान कमियों और कमजोरियों को अनदेखा करने की छूट नहीं देता। बल्कि समग्रता का जो सूत्र ग्राम समाज के जीवन को अर्थवत्ता देता था उसे वह टूटता हुआ देख रहे हैं और उससे दुःखी है, इसका दर्द बार-बार उनके निबन्धों में प्रकट होता है।—अज्ञेय कृष्ण बिहारी जी का सपना धुँधला नहीं है, बड़ा ही स्पष्ट है। वे जड़ों की तलाश करते हैं तो जड़ खोद कर नहीं, अपनी प्राणनाड़ी का सन्धान करते हुए करते हैं। इस कारण वे उघरी जड़ों का आवाहन या स्मरण नहीं करते, वे समग्र जातीय चेतना के रसग्राही स्रोत में धँसी हुई जड़ को ध्याते हैं। वे अधूरेपन से उद्विग्न होकर समूचेपन की तस्वीर खींचने के लिए स्वप्नाविष्ट होते हैं।—विद्यानिवास मिश्र श्री कृष्ण बिहारी मिश्र का मनोमस्तिष्क पुनर्जागरण की दीप्ति से जगमगाता रहा है। मुझे उनके निबन्ध बहुत ही प्रीतिकर लगते रहे हैं। उनके निबन्धों में आचार्य हजारीप्रसाद के पहले खेवे के निबन्धों का तेवर और फक्कड़पन तथा मस्ती दिखाई पड़ती है। कृष्ण बिहारी की विशेषता है कि वे कहीं से रूमानियत के शिकार नहीं हुए हैं। इसी कारण वे कुबेरनाथ राय की तरह सम्मोहनों से अपने को तोड़ पाने में असमर्थ नहीं हैं।—शिवप्रसाद सिंह
Log In To Add/edit Rating