बिहार में चुनाव : जाति, हिंसा और बूथ लूट - पिछले सौ वर्षों में बिहार का जातीय परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है । शिक्षा का प्रसार और विभिन्न जातीय समूहों के बीच आधुनिक मध्यवर्ग का उदय, जातीय और धार्मिक सुधार, स्वतंत्रता और किसान आंदोलन, मध्यवर्ती और दलित जातियाँ का प्रतिनिधित्व करनेवाले विचारों और राजनीतिक दलों का अभ्युदय, ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार तथा बालिग मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र इन सभी कारकों के सम्मिलित प्रभाव से ही ऐसा संभव हुआ।
जातियों का परंपरा से चला आ रहा सामाजिक ढाँचा और जातियों के बीच राजनीतिक समीकरण हमेशा ताल मिलाकर नहीं चलते। मध्यवर्ती और दलित जातियों के सामाजिक आंदोलनों में हमेशा उच्च जातियों के एक हिस्से ने शिरकत की है। ऐसे आंदोलनों के अनेक नेता और सिद्धांतकार प्रायः उच्च जाति के बुद्धिजीवी रहे हैं। इसके अलावा, जातियों की बहुलता किसी भी एक जाति के वर्चस्व को असंभव बना देती है। सामाजिक रूप में दो ध्रुवों पर रहने के बावजूद राजनीतिक समीकरण में ब्राह्मण और दलित लंबे समय तक साथ-साथ रहे। मध्यवर्ती जातियों के उत्थान के दौर में जो पिछड़ा-दलित-मुसलमान समीकरण बना, उसमें भी उच्च जाति के एक महत्वपूर्ण घटक राजपूत शामिल थे। बालिग मताधिकार इस तरह के जातीय समीकरणों को ज़रूरी बना देता है। समाज का जितना ज़्यादा लोकतांत्रिकरण होता जाता है, राजनीति में जातीय समीकरणों की गतिशीलता भी उतनी ही बढ़ती जाती है। नये-नये जातीय समूह धीरे-धीरे लोकतंत्र में अपनी पहचान जताने लगते हैं और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए मोलतोल करने लगते हैं। इस तरह लोकतंत्र में जातियों की बहुलता जाति के परंपरागत सामाजिक ढांचे को कमज़ोर करने और उसके टूटने में सहायता प्रदान करती है।
जातियों का परंपरागत संतुलन जब टूटने लगता है, तब स्वभावतः सामयिक तौर पर जातीय तनाव और हिंसा फैलती है। लेकिन संक्रमण का यह काल दरअसल जातियों के बीच परस्पर समानता और सम्मान के नये संबंधों, जातियों के बीच अपेक्षाकृत न्यायपूर्ण संतुलन को जन्म देता है। इतिहास में यह संक्रमण दशकों तक चलता रहता है।
अगर हमारे प्रांत में ऐसी स्थिति दिखाई पड़ती है तो इसका कारण चुनाव नहीं, राजनीतिक दलों की दृष्टि की दरिद्रता है। यह मूलतः राजनीतिक दलों की विफलता है। आम जनता जातीय ध्रुवीकरण और सामाजिक गतिरुद्धता की स्थिति में ज़्यादा दिन नहीं रह सकती। व्यावहारिक जीवन उन्हें नयी पहलकदमियां लेने के लिए मजबूर करता रहता है। व्यक्ति और समूह अपने-अपने स्तर पर क्रियाशील होते हैं और इन चुनौतियों से जूझते हैं। तदनुरूप समाज में नयी उद्यमिता, नये विचार और आंदोलन भी सामने आते हैं। शुरू-शुरू में चुपचाप, अनदेखे, किन्तु कालान्तर में यही विराट शक्ल ले लेते हैं। नये आर्थिक प्रयोगों, सामाजिक संबंधों और संस्कृति के संवाहक बन जाते हैं ।
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एक ओर जातियों के बीच बढ़ती समरसता और दूसरी और जातीय तनाव और नरसंहार – दोनों परम्परागत जातीय ढाँचे के टूटने की ही रेखांकित करते हैं। हमारा लोकतंत्र फ़िलहाल इसी टूटन को, इसी तनाव को झेल रहा है।
लेकिन समाज का विकास सिर्फ जातियों के नये समीकरणों और सामाजिक आंदोलनों तक ही सीमित नहीं होता। जातियों के सामाजिक आंदोलनों को स्वतंत्र विकास अनिवार्य तौर पर आत्मघाती जातीय संघर्षों को जन्म देता है और समाज को पतन की ओर ले जाता है। इसलिए जातियों के सामाजिक आंदोलन को भी समाज के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विकास और बृहत्तर परिप्रेक्ष्य से जोड़ना ज़रूरी होता है। नयी उद्यमिता का विकास, आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में नयी पहलकदमियाँ आदि सामने नहीं आयेंगी तो समाज गतिरुद्ध हो जायेगा और गतिरुद्ध समाज में जातीय तनाव और झगड़े सामूहिक तबाही का कारण वन जायेंगे। इस वृहत्तर परिप्रेक्ष्य से सूनी राजनीतिक पार्टियाँ सिर्फ़ जातीय ध्रुवीकरण की स्थिति में ही फलती-फूलती हैं । चिरंतन जातीय ध्रुवीकरण उनके अस्तित्व की शर्त बन जाता है।
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