किसी भी गतिशील समाज में संक्रमण एक प्रक्रिया का नाम है, एक अपरिहार्य कालस्थिति का द्योतक। इसमें जिस तीव्रता से उलट-फेर होते हैं, उनसे अक्सर समाज की स्वस्थ परम्पराओं को भी नुकसान पहुँचता है। जीवन के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ घटित होता हुआ दिखायी देता है, जिससे किसी भी देश के ऐतिहासिक सामरस्य में ‘सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अराजकता व्याप्त हो जाती है; भ्रांति को हम क्रान्ति समझ लेते हैं, समस्याएँ और भी उलझ जाती हैं, उनके कोई हल नहीं निकलते है।’ प्रो. दुबे की यह कृति एक दुर्लभ रचनात्मक धीरज के साथ भारतीय समाज के वर्तमान संक्रमण-काल का एक ऐसा अध्ययन है, जिससे प्रत्येक सजग पाठक को गुजरना चाहिए।
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