मुम्बई में पेडर रोड में सोफिया कॉलेज के पास एक बिल्डिंग है, नाम है पुष्पा विला, इसकी तीसरी फ्लोर पर कई कमरों का एक फ्लेट है। इस फ्लेट में एक कमरा पिछले कई सालों से बन्द है। हर रोज सुबह सिर्फ सफाई और एक बड़ी सी मुस्कुराते हुए नौजवान की तस्वीर के आगे अगरबत्ती जलाने के लिए थोड़ी देर को खुलता है और फिर बन्द हो जाता है। यह कमरा आज से कई वर्षों पहले की एक रात को जैसा था आज भी वैसा ही है। डबल बैड पर आड़े-तिरछे तकिये, सिमटी-सिकुड़ी चादर, ड्रेसिंग मेज पर रखा चश्मा, हैंगर पर सूट, फर्श पर पड़े जूते, मेज पर बिखरी रेजगारी, इन्तिज़ार करता नाइट सूट, वक्त को नापते नापते न जाने कब की बन्द घड़ी, ऐसा लगता है, जैसे कोई जल्दी लौटने के लिए अभी-अभी बाहर गया है, जाने वाला उस रात के बाद कमरे का रास्ता भूल गया लेकिन उसका कमरा उसकी तस्वीर और बिखरी हुई चीजों के साथ, आज भी उसके इन्तिज़ार में है। इस कमरे में रहने वाले का नाम विवेक सिंह था, और मृत को जीवित रखने वाले का नाम मशहूर ग़ज़ल सिंगर जगजीत सिंह है जो विवेक के पिता हैं । यह कमरा इन्सान और भगवान के बीच निरन्तर लड़ाई का प्रतीकात्मक रूप है। भगवान बना कर मिटा रहा है, और इन्सान मिटे हुए को मुस्कुराती तस्वीर में, अगरबत्ती जलाकर, मुसलसल साँसें जगा रहा है। मौत और जिन्दगी की इसी लड़ाई का नाम इतिहास है। इतिहास दो तरह के होते हैं। एक वह जो राजाओं और बादशाहों के हार-जीत के किस्से दोहराता है और दूसरा वह जो उस आदमी के दुख-दर्द का साथ निभाता है जो हर युग में राजनीति का ईंधन बनाया जाता है, और जानबूझ कर भुलाया जाता है।
तारीख़ में महल भी हैं, हाकिम भी तख्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर
मैंने ऐसे ही 'गुमनामों' को नाम और चेहरे देने की कोशिश की है, मैंने अपने अतीत को वर्तमान में जिया है। और पुष्प विला की तीसरी मंज़िल के हर कमरे की तरह अकीदत की अगरबत्तियाँ जलाकर 'तमाशा के आगे' को रौशन किया है। फ़र्क सिर्फ इतना है, वहाँ एक तस्वीर थी और मेरे साथ बहुत-सी यादों के गम शामिल हैं। बीते हुए का फिर से जीने में बहुत कुछ अपना भी दूसरों में शरीक हो जाता है, यह बीते हुए को याद करने वाले की मजबूरी भी है। समय गुज़र कर ठहर जाता है और उसे याद करने वाले लगातार बदलते जाते हैं, यह बदलाव उसी वक़्त थमता है जब वह स्वयं दूसरों की याद बन जाता है। इनसान और भगवान के युद्ध में मेरी हिस्सेदारी इतनी ही है।
खुदा के हाथों में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पर कुछ अपना इख्तियार भी रख -
इस किताब को लिखा है मैंने लेकिन लिखवाया है राजकुमार केसरवानी ने जिसके लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूँ।
फ्लाबिर ने अपने चर्चित उपन्यास मैडम बॉवेरी के प्रकाशन के बारे में कहा था... काश मेरे पास तना पैसा होता कि सारी किताबें खरीद लेता और इसे फिर से लिखता... समय का अभाव नहीं होता तो मैं भी ऐसा ही करता। मेरा एक शेर है-
कोशिश के बावजूद यह उल्लास रह गया
हर काम में हमेशा कोई काम रह गया।
- निदा फ़ाज़ली