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पिछले एक दशक में फैली हुई यतीन्द्र मिश्र के संगीत एवं कला-चिन्तन की बानगी के तौर पर यह पुस्तक विस्मय का बखान आपसे संवादरत है। इस दौरान लेखक के द्वारा लिखे गये कला सम्बन्धी डायरियों के अंश, पढ़ी हुई पुस्तकों की स्मृतियाँ, स्मृति की खिड़की से खोजी गयी रूपंकर कलाओं की दुनिया, वरिष्ठ कलाकारों एवं मूर्धन्यों की कला यात्रा के प्रभावों की स्नेहिल झिलमिल तथा समय-समय पर साहित्य एवं संस्कृति के समाज में रमते हुए कुछ उत्साह, तो जिज्ञासा के साथ उसके शाश्वत कुछ व समकालीन प्रश्नों को भेदने के प्रयास का एक हार्दिक संगुम्फन है यह संचयन ।
इस बहाने विभिन्न कला-रूपों पर एकाग्र इस आयोजन में भाषा भी कला के साथ अपनी उसी समावेशी प्रकृति को साथ लेकर आगे बढ़ती है, जिसके चलते कलाओं के आँगन में भाषा का प्रवेश तथा भाषा के संसार में कलाओं की जुगलबन्दी को कुछ अभिनव आशय सुलभ होता है। एक तरफ जहाँ यह पुस्तक रूपंकर अभिव्यक्तियों के समाज एवं उनकी स्वायत्तता पर गम्भीरता से विचार करती है, तो दूसरी ओर इसका वितान पं. मल्लिकार्जुन मंसूर, उस्ताद अमीर ख़ाँ, पं. भीमसेन जोशी से होता हुआ काशी की बाईयों समेत शैलेन्द्र, सत्यजित रे, साहिर लुधियानवी, निर्मल वर्मा, कुँवर नारायण, रसन पिया, लता मंगेशकर एवं ग़ालिब की दुनियाओं तक फैला है।
संगीत और नृत्य पर विमर्श के बहाने, सिनेमा और साहित्य के आन्तरिक रिश्तों के चलते तथा तमाम सारे कलाकारों, मूर्धन्यों, वाग्गेयकारों, कवियों-लेखकों, नर्तक-नर्तकियों के संस्मरणों व संवादों को आधार बनाकर उनकी कला व्याप्ति का बखान, यह पुस्तक अपनी पूरी आत्मीयता के साथ करती है, जिसका कला-परक आमंत्रण हर पृष्ठ पर पूरी प्रखरता से उजागर हुआ है।
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