इस ग्लोबल समय में कविता बहुत बदल गयी है, हमारा समाज भी बदल गया है। बदलाव की यह गति इतनी तेज है कि इस पर उँगली रखना मुश्किल है। इस तेजी से भागते समय में कविता एक ही साथ जैसे बहुत सारे कालखंडों में और अलग-अलग भू-दृश्यों में जीने-साँस लेने लगी है। यह कविता एक साथ बहुत सारे पाठों को आमन्त्रित करती है। तेजी से बदलते हुए समय पर भी इसकी आँख है और न बदलने को तैयार, ठहरी हुई दुनिया पर भी। इन दोनों सिरों को कई बार वह एक साथ समेटने का जतन भी करती है। इस कविता को पढ़ने के लिए बहुत संवेदनशील और चौकन्नी नजर चाहिए - उसकी सीमाओं को पहचानने के लिए भी। यह किताब ‘ग्लोबल समय में कविता’ यही काम करती है। वह कवि और पाठक के बीच का फासला घटाती है और वह पुल बनाती है जिसके माध्यम से रचना के मूल तन्तुओं तक पहुँचना आसान होता है। समकालीन हिन्दी कविता की महत्त्वपूर्ण कृतियों पर केन्द्रित इस किताब के आलेख काव्यालोचना की पुरानी रूढ़ियों से दूर, अपने आत्मीय, तरल और पारदर्शी गद्य के साथ एक ऐसा पाठ बनाते हैं जिसे पढ़ते हुए पाठक को कविता पढ़ने का सा सुख मिल सकता है।
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