बिहार : चिट्ठियों की राजनीति -
1857 की क्रान्ति को समझने के लिए जिस तरह ग़ालिब की चिट्ठियों का महत्त्व है उसी तरह आज़ादी के बाद बिहार की राजनीति को समझने के लिए इन चिट्ठियों का महत्व है। ' बिहार : चिट्ठियों की राजनीति' आज़ादी के बाद बिहार के सन्दर्भ में राजनेताओं द्वारा परस्पर सम्बोधित पत्रों का वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत द्वारा किया गया ऐसा संकलन है जो बिहार की वर्तमान दुःस्थिति के कारकों पर प्रकाश डालता है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण से लेकर लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और शिवानन्द तिवारी, रंजन यादव तक के पत्र इन राजनेताओं की वैचारिक रस्साक़शी को भी सामने रखते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता, अलगाववाद, जातिवाद जैसे विषयों पर इन राजनेताओं की मतभिन्नता कैसे हमारे समय-समाज को प्रभावित करती है यह देखना यहाँ रोचक है। श्रीबाबू को लिखे गये अपने पत्र के अन्त में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद लिखते हैं - यह एक ख़तरनाक बात होगी, यदि ये धारणा विदेश में चली जाये कि हमारी सरकार ऐसे क़दम उठा रही है, जिनकी हमने ज़िन्दगी भर निन्दा की है। बापू को सम्बोधित अपने पत्र में सूर्यनारायण सिंह लिखते हैं। बापू, आदर्श क्या ज़मीन पर उतर कर इतना घिनौना होता है, जिससे नफरत पैदा हो जाये... ये पत्र इन राजनेताओं के विचार और व्यवहार के अन्तर्विरोधों को सामने रखते हैं। इसी तरह रामानन्द तिवारी और कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद और नरेन्द्र सिंह, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के पत्र भी राजनीति में आत्मीयता के क्षरण की गाथा कहते हैं।
- डॉ. रज़ी अहमद
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