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चकिया से दिल्ली' कवि केदारनाथ सिंह के बारे में उनके कुछ समकालीन लेखकों और कुछ आत्मीय जनों के द्वारा लिखे गये लेखों और टिप्पणियों का संग्रह है। चकिया अर्थात् उनका जन्मस्थान और दिल्ली अर्थात् वह महानगर जहाँ आज वे रहते हैं। ठेठ ग्रामांचल से महानगर की ओर यह स्थानान्तरण ऐसा है जिसे उनके पूरे विकासक्रम में देखा जा सकता है।
उनके व्यक्तित्व की सादगी उनकी कविता की सबसे बड़ी शक्ति है। उनकी सादगी के कारण जीवन की जटिलताएँ उनके सम्मुख अपनी समूची वास्तविकता में अर्थवान हो उठती हैं। इसलिए उनकी कविता में सुदीर्घ भारतीय जीवन बोध अपनी समकालीन विडम्बनाओं के बहुस्तरीय वेधक आवेग के साथ विश्वसनीय स्वरूप में जीवन्त हो उठता है। जीवन के प्रति गहरे राग बोध की अक्षय पूँजी उनके काव्य ऐश्वर्य को दुर्निवार आकर्षण से सम्पन्न बनाती है । यह राग बोध उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और सुकुमार संवेदना से उपलब्ध हुआ है। यह सब उन्हें अनायास ग्राम्य संस्कृति से अपनी जातीय विरासत के रूप में हस्तगत हुआ है। शायद यही वजह है कि आज भी अपने गाँव के प्रति उनका अनुराग दुनिया की तमाम समृद्ध सभ्यताओं के निकट परख और पहचान के बाद भी तनिक भी कम नहीं हुआ है। वे बराबर गाँव आने और अपने गाँव में होने के अवसरों की तलाश भी करते हैं और आविष्कार भी करते हैं।
वे इस महादेश के छोटे से गाँव में आकर ऐसे विश्वस्त और विश्रब्ध हो जाते हैं जैसे कोई शिशु अपनी माँ की गोद में जाकर हो जाता है। अपने गाँव की गलियों में, सीवानों में चलते हुए उन्हें अपने पाँव के नीचे की ज़मीन का कण-कण जन्मों के परिचय की आत्मीयता से रोमांचित कर देता है । गंगा और घाघरा के तट उनके प्राणों को अपने बुलावे से उन्मथित करते रहते हैं । तटों के किनारे बिखरी हुई अपार बालुकाराशि उन्हें प्रणय- कलह की, संघर्ष - सन्धि की, जय-पराजय की अपनी असमाप्त कहानी कहते अपार तोष का रस पाती है। यह अद्भुत आत्मीयता अचानक और आकस्मिक नहीं, सदियों के संस्कार की अनमोल विरासत है।
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