निबंधों की दुनिया – निराला -
'हमारे साहित्य में यह क्या हो रहा है यह भारतीय है, यह अभारतीय है, असंस्कृत। धन्य है, हे संस्कृति के बच्चो! - नस-नस में शरारत भरी, हजार वर्षों से सलाम ठोंकते-ठोंकते नाक में दम हो गया, अभी संस्कृति लिये फिरते हैं।'- यह भाषा और ये विचार किसके हो सकते हैं सिवाय सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के निबंध विधा की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि यह द्वंद्व और संघर्ष के वातावरण में और ज्यादा खिल उठती है। निराला की कविता भी ऐसी है और उनके निबंध भी। दोनों में एक ही ऊष्मा, एक ही ताप, एक जैसी प्रखरता और एक जैसी मानवीयता के दर्शन होते हैं। कहा जा सकता है कि निराला ने कविता में विप्लव लाने की जो ऐतिहासिक भूमिका निभायी, उसके सैद्धांतिक पक्ष का निर्माण अपने निबंधों में किया। निराला का गद्य इस दृष्टि से अनूठा है कि वह जिरह की जमीन को कभी नहीं छोड़ता, फिर भी रसात्मकता से भरपूर है। निराला सर्जक थे ही ऐसे कि सत्य और सौंदर्य के बीच पुल बनाते हुए भी उनकी तीक्ष्ण नजर यथार्थ पर हमेशा बनी रहती थी। इसलिए उनकी बहुत-सी स्थापनाएँ न केवल चौंकाती हैं, बल्कि यथार्थ का सामना करने के लिए झकझोरती भी हैं। अलोकप्रिय होने का खतरा उठाते हुए भी निराला समाज, संस्कृति, उपन्यास, कविता, परंपरा, आधुनिकता, स्त्री मुक्ति तथा जनता और साहित्य जैसे विषयों पर अपनी मौलिक स्थापनाएँ बड़ी ताकत के साथ प्रस्तुत करते थे। ये स्थापनाएँ आज भी उतनी ही मौलिक और न हैं। इसीलिए निराला के निबंध बार-बार पढ़े जाने की माँग करते हैं।
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