सहस्राब्दी के आरम्भ में यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों का साहित्यिक चरित्र क्या होगा। गहन दृष्टि से देखें तो हिन्दी - साहित्य 1857 के संक्रान्तिपूर्ण क्षणों में आँखें खोलता है। हिन्दी-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपने उद्देश्यों में स्पष्ट है । इस साहित्य का भाव और कलापक्ष अपने महत्त्व के अनुरूप अपनी आकृति और प्रकृति से ताल-मेल करता हुआ चलता है । राष्ट्रीय आन्दोलन में उसकी भूमिका साहित्य के स्तर दायित्व को पूरा करती हुई दीखती है । इस दृष्टि से हिन्दी-साहित्य को तीन बिन्दुओं से परखा जा सकता है - (1) आजादी के पूर्व, (2) आजादी के समय, (3) आजादी के बाद का साहित्य | आजादी के पूर्व हिन्दी - साहित्य का मुख्य लक्ष्य स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ-साथ सामाजिक जन-जागृति में महत्त्वपूर्ण समस्याओं से जुड़ा हुआ था । विश्वमहायुद्धों का प्रभाव, अंग्रेजों का दमन, सामाजिक आपदाएँ, समस्त अशिक्षा के बीच अनेक विचारकों के दर्शन इसे प्रभावित करते हैं। इसी के साथ पश्चिमी साहित्य का स्वछन्दतावाद, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद जैसे बाह्य दर्शन हिन्दी-साहित्य के सम्पूर्ण परिदृश्य में घुसपैठ करते हुए दिखाई देते हैं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति का स्वप्न पूरा होने के साथ देश के स्वप्नों का क्षण मूर्त्त होते ही कालान्तर में मोहभंग की स्थितियाँ हिन्दी-साहित्य को गहन रूप में प्रभावित करती हैं। भारत-विभाजन, 1962 का चीनी युद्ध, 1965 का पाकिस्तान युद्ध और 1971 का पाकिस्तान, बंगलादेश युद्ध हिन्दी-साहित्य में अमिट छाप छोड़ता है ।साम्प्रदायिक हिंसा, कारगिल युद्ध, विश्वआतंकवाद राजनीतिक अस्थिरता के चलते साहित्य की जिम्मेदारी भी उसी क्रम से बढ़ी है परन्तु क्या रचनाकार इसके प्रति सजग हुए हैं। यह ग्रन्थ कुछ ऐसे ही अनुत्तरित प्रश्नों के समाधान खोजने का सार्थक प्रयास है।
यहीं से हमारी समस्याएँ आरम्भ होती हैं । अन्तिम दो दशकों पर विचार इसलिए अति आवश्यक है कि हिन्दी- साहित्य में जो रंगतें अनेक रूपाकारों में ढलकर जो स्थापनाएँ करती हैं, उसमें सबसे बड़ा प्रश्न हिन्दी - साहित्य की स्वायत्तता है, आजादी के पूर्व छायावाद,प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और फिर आजादी के पश्चात् नई कविता जैसे महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं में जहाँ हिन्दी-साहित्य अपना निजत्व कहीं पर सुरक्षित रखता हुआ दिखाई देता है, वहीं इन्हीं पश्चिमी विचारों की आड़ में हिन्दी - साहित्य में उठनेवाले अनेक मुहावरे, अकविता, अकहानी, बीटनिक साहित्य, समकालीनता का मुहावरा जैसे क्षणिक बुलबुलों के बीच हिन्दी-साहित्य भारी वैचारिक दबावों में दिखाई पड़ता है।
यह आश्चर्यजनक लग सकता है कि पूरे ग्रन्थ में 'समकालीनता' जैसे शब्द का प्रयोग उस स्तर पर नहीं हुआ है जैसा कि साठ के बाद के साहित्य पर निरन्तर हावी रहा है। ऐसा इसलिए कि यह ग्रन्थ किसी भी ऐसे मुहावरे को साहित्य में वांछित नहीं मानता। अन्तिम दशकों पर चर्चा करके ही यह तथ्य सामने आ सकते हैं कि सहस्राब्दी में हिन्दी-साहित्य का सही परिदृश्य क्या होगा? किस प्रकार हिन्दी-साहित्य के निजत्व और स्वायत्तता को बचाया जा सकेगा? एक ओर वैचारिक प्रचारवाद की घुसपैठ के नाम पर साहित्य मठों और शिविरों के बीच खंड-खंड हो रहा है, अपनी पहचान खो रहा है, दूसरी ओर फ्रांसीसी दार्शनिक देरिदां के उत्तर-आधुनिकतावाद का प्रहार हिन्दी - साहित्य के वजूद पर तो प्रहार कर ही रहा है, भारतीय आलोचना दृष्टि पर भी अपने शिकंजे कस रहा है। हिन्दी जगत का कर्तव्य है कि हिन्दी-साहित्य पर आक्रमण करनेवाले ऐसे कारकों को किसी भी प्रकार रोके । भारतीय साहित्य की अपनी पहचान है, उसका अपना निजत्व है । अन्तिम दो दशकों के हिन्दी साहित्य पर यह ग्रन्थ इन्हीं प्रश्नों के उत्तर का सार्थक प्रयास है। सूचना संजाल और कई तरह के दबावों के बीच अपनी 'इयत्ता' को बचाए रखने की यह कोई साहित्य की तात्कालिक ज़रूरत भी थी। ‘साहित्य की सोच' में आगामी भूमिका का कोई दिशा-संकेत भी होगा ऐसी आशा की जानी चाहिए कि साहित्य के विस्तृत आकाश पर ठहरे विकृत और अशुभ छाया संकेतों से हिन्दी-साहित्य को निज़ात मिलेगी और वह अपनी संकल्पनाओं से अँधेरी सुरंगों को पार करता हुआ भी मनुष्य की चेतना को विषमताओं से लड़ने की शक्ति और ऊर्जा प्रदान करेगा जिसे वह सदैव करता आया है।