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दलितों पर अत्याचार और दलित संहार की घटनाएँ देशव्यापी रूप में लगातार घट रही हैं, मगर अभी भी उन्हें न्याय नहीं मिल सका है। इसके पीछे विषमतावादी सवर्ण मानसिकता का अहंकार, कपट और कुटिलता है। यही कारण है कि शताब्दी बीत गयी है, समाज सामाजिक आन्दोलन और समाज परिवर्तन के प्रयत्नों में, मगर अभी भी समाज में वर्णवाद, जातिवाद मौजूद है। अभी भी वंशानुगत जाति परम्परा है और उसी तरह वंशानुगत रोज़गार परम्परा बनाये रखने की साज़िश है। शोषण अत्याचार का शिकार व्यक्ति ही कष्टों को भोगता है। झूठे बहकावे में भुलाकर उन्हें अधिक गुमराह किया जाता है। वर्णवाद, जातिवाद और वंशवाद की नीति समाज में समता नहीं आने देती।
कोंकणस्थ और देशज के नाम पर ब्राह्मण वर्ग भी ऊँच-नीच की भावना से ग्रसित है। यही भावना दलितों में भी जाति और उपजातियों के नाम पर मौजूद है। मनुवाद के इस अनुकरण में उलझकर वे अपने प्रगति-परिवर्तन को समझ नहीं पाते हैं। शिक्षा, संघर्ष और संगठन की ताक़त से वंचित रहकर, पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण का शिकार बने रहते हैं। ऐसे में खेमचन्द जैसे पात्रों के सपने केवल दिवास्वप्न देखने से पूर्ण नहीं होंगे। इसके लिए उन्हें संघर्ष करना होगा, अन्याय का डटकर मुक़ाबला करना होगा और अपने समता सम्मान के अधिकारों को स्वयं पाना होगा।
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