मेरी भारत यात्रा - कोलकाता के उत्तर में, दर्पणारायण टैगोर स्ट्रीट पर मेरे ससुराल में मेरा जीवन टैगोर परिवार की एक सुशील बहू बनने के लिए था। बड़ों के प्रति आदरभाव, धार्मिक अनुष्ठानों में भागीदारी, और पहनावे, खाने और रहने की सूक्ष्म बातों तक, मुझे उन तरीक़ों का पालन करना था जो मुझे अभी सीखने थे। यह मेरी चुनी हुई राह थी, और यही एकमात्र तरीक़ा था जिससे मैं यहाँ आनन्द से रह सकती थी। प्रतिदिन मैं अपने सिर को साड़ी से ढके हुए सास और नौकरों के साथ रसोई की ठण्डे सीमेंट वाले फ़र्श पर बैठकर, बोंटी के नाम से जाने जाते चाकू से सब्ज़ियों और मछलियों को काटती थी। मैंने सोचा कि मुझे अपने आप को अब जापानी नहीं समझना चाहिए।
एक दिन, एक परिचित के माध्यम से, मुझे जापानी भाषा के दुभाषिए का काम मिला । मुझे लग गया कि यह कोलकाता में बहू के रूप में जीवन बिताते रहने से बाहर निकलने का मौक़ा है। उसी समय मुझे शिमला आने का अवसर मिला । वहाँ मैंने देखा था, बर्फ से ढके विशाल हिमालय के पर्वत, हिमालय में देवदार के जंगल, विभिन्न आकार के फर्न और पहाड़ी घास के झुरमुट, और चेरी और सेब के पेड़ों का झुण्ड । ताज़ी हवा और स्वच्छ पानी । इस प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारते हुए, मैंने बहुत दूर अपनी मातृभूमि जापान के बारे में सोचा, जहाँ मेरे पिता और माँ रह रहे थे । उनको याद करके उस समय, मैं भारत आने के बाद पहली बार ज़ोर से रोयी।
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