यह एक झकझोर देने वाली किताब है! यह अब तक लिखे गये हिन्दी साहित्य के इतिहास के 'निष्कर्षों' का 'रिवर्सल' करती है और रीतिकाल का 'उद्धार' करती है। यह सप्रमाण सिद्ध करती है कि रीतिकाल के कवि पहले फ्रीलांसर और प्रोफेशनल कवि थे, जो 'कविशिक्षा' दिया करते थे और जो हिन्दी के पहले रूपवादी और सेकुलर कवि थे।
यहाँ, रीतिकाल की कविता अश्लील या निन्दनीय न होकर 'सेक्सुअलिटी का समारोह' है जिसमें, उस दौर में सचमुच जिन्दा और प्रोफेशनल स्त्रियाँ अपनी ‘देह सत्ता' और 'देह इतिहास' को रचती हैं। ये नायिकाएँ अपनी सेक्सुअलिटी के प्रति बेहद सजग हैं। कविता में उनकी जबर्दस्त दृश्यमानता उनको इस कदर ‘ऐंपावर' करती है कि उसे देखकर हिन्दी साहित्य के इतिहास लिखने वाले बड़े-बड़े आचार्यों को अपना ब्रह्मचर्य डोलता दिखा है और बदले में वे इन स्त्रियों को शाप देते आये हैं!
यह किताब 'नव्य इतिहासवादी', 'उत्तर आधुनिकतावादी', ‘उत्तर-संरचनावादी' और 'सांस्कृतिक भौतिकतावादी' नजरिए से हिन्दी साहित्य के नैतिकतावादी दरोगाओं द्वारा रीतिकाल की इन चिर निन्दित स्त्रियों के सम्मान को बहाल करती है, रीतिकाल के कुपाठियों की वैचारिक राजनीति को सप्रमाण ध्वस्त करती है और रीतिकाल को नये सिर से पढ़ने को विवश करती है !
-प्रकाशक
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