विभाजन की कहानियाँ -
सभ्यता ने जब-जब अपनी पुस्तक में विकास के अध्यायों को जोड़ा है, जंगों का जन्म हुआ है। यह कोई नई बात नहीं है। मुल्क हिन्दोस्तान इसी सिलसिले की एक कड़ी है। मुल्की ग़ुलामी से निजात ने जिन 'चीथड़ों' को जन्म दिया, वे साम्प्रदायिकता के लहू के रंगे थे। यद्यपि इसे इस आँख से भी देखना चाहिए कि आपस की नाइत्तेफ़ाकी केवल अंग्रेज़ों की 'फूट डालो और शासन करो' राजनीति का परिणाम नहीं थी, हमारे अपने दिमाग़ भी दाग़दार थे, या हो चुके थे। हाँ, यह सच है कि साम्प्रदायिकता के उन्माद को जब-जब टटोलने की बात चलती है तो इसे सीधे अंग्रेज़ी राजनीति से जोड़कर अपना दामन बचाने की कोशिश की जाती है।
मगर पूरा-पूरा सच यह नहीं है। कुसूरवार कहीं हम भी रहे हैं। और यह जो अपनी पुरानी संस्कृति के खुलासे में मिला हुआ दिमाग़ रहा है... जिसमें वर्षों से यह बैठाया जाता रहा है... इतनी सारी नदियाँ, इतने सारे पहाड़... इतने सारे रंग, नस्ल और अलग-अलग देशों से आये 'चीथड़े'... यह जो, एक देश को 'सेकुलर' बनाने के पीछे हर बार, जबरन 'पैबन्दों' की बैसाखियों का सहारा लिया गया - आप मानें न मानें इन्होंने भी जहनो-दिमाग़ के बँटवारे को जन्म दिया। दरअसल टुकड़े आर्यावर्त के नहीं हुए। टुकड़े हुए दिमाग़ के... और इनसे फूटी एक कोड़नुमा संस्कृति... इनसे उपजा साम्प्रदायिकता का उन्माद।
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