कला-मर्मज्ञ राय कृष्णदासजी की यादों में महाकवि 'प्रसाद' जी की ये यादें एक कहानी की तरह उनके कथारस में डूबी हुई लगती हैं, मानो एक-एक याद अलग-अलग कहानी कह रही हो। फिर भी उन सभी की अन्तर्वस्तु एक सूत्र में पिरोयी हुई यादों की माला का अन्तर्ज्ञान करा देती है, साथ ही वे यादें पाठकों को 'प्रसाद' जी के जीवन को नयी दृष्टि भी प्रदान करती हैं। नये-नये आयामों से रूबरू भी कराती हैं।
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'कला की संस्थाएँ स्थापित तो बड़ी आसानी से की जाती हैं, मगर जीना उनका दुश्वार होता है और अगर उनके सम्यक् विकास की बात पूछिए, तो सम्यक् विकास उनका तब होता है, जब वे प्रथम कोटि की प्रतिभा वाले किसी कर्मठ व्यक्ति का सारा जीवन चाट जाती हैं। 'भारत कला-भवन' भी श्री राय कृष्णदास की पूरी ज़िन्दगी को पीकर सम्यक् विकास पर पहुँचा है।'
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'कहते हैं, दरबार या तो भारतेन्दु का लगता था या फिर प्रसाद जी का । प्रसाद जी के दरबार में पहुँचने पर बड़े- बड़े फणधारी भी अपने फणों को नीचे कर लेते थे और प्रसाद जी तो प्रेम की मूर्ति थे। अगर उनके दरबार में पहुँच जाते, तो पान और जलपान से स्वागत वे उनका भी करते थे और यह ज़िक्र बिल्कुल नहीं करते कि तुम जो... बोलते हो, उसकी भनक मुझ तक भी पहुँची है।'
- राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर'
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