साँस की क़लम से - सन् 1943 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था। तब महज़ 16-17 साल की उम्र में धर्मवीर भारती ने जब वहाँ की भीषण भुखमरी और अंग्रेज़ों के अत्याचारों की बातें सुनीं तो उनका सुकुमार भावुक मन बहुत विचलित हो गया। जीवन में पहली बार तब उन्होंने एक मार्मिक कहानी लिखी, तो कुछ सुकून महसूस हुआ। उसी उम्र में 9 कहानियाँ और लिख डालीं। यह कहानियाँ 1946 में 'मुर्दों का गाँव' नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुईं। इस तरह शुरू हो गया कहानी लेखन का सिलसिला। 1949 में पुनः 9 कहानियों का संग्रह 'स्वर्ग और पृथ्वी' छपा। 1955 में आयी पुस्तक 'चाँद और टूटे हुए लोग'। 1955 में ही इलाहाबाद की बहुत प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था 'परिमल' की ओर से 'निकष' नाम से एक अर्द्धवार्षिक पत्रिका का सम्पादन किया। इसके प्रवेशांक के लिए स्वयं भी 'गुल्की बन्नो' कहानी लिखी। यह कहानी बहुत चर्चित हुई और कालान्तर में उसे कालजयी कृति के रूप में उद्धृत किया जाने लगा। किन्तु उसके बाद उनके कहानी लेखन के क्षेत्र में एक लम्बा अन्तराल आ गया और 1969 में अगला कहानी संग्रह 'बन्द गली का आख़िरी मकान' नाम से आया। अपनी गहरी संवेदना दृष्टि के कारण वह असाधारण अनुभूति को साधारण और साधारण को असाधारण बना देने वाले अद्वितीय कथा शिल्पी थे। 'धर्मवीर भारती ग्रन्थावली' के सम्पादक चन्द्रकान्त बांदिवडेकर ने 'बन्द गली का आख़िरी मकान' शीर्षक कहानी के लिए लिखा है, 'यह कहानी हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है ही साथ ही चेखव, दोस्तॉवस्की, टॉल्स्टॉय, डी.एच. लॉरेंस की श्रेष्ठ कहानियों की पंक्ति में भी शामिल हो सकती है।' 'स्वर्ग और पृथ्वी' की भूमिका 'शुभास्ते पंथानः' शीर्षक से स्वयं साहित्य देवता माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखी थी। जिसकी अन्तिम पंक्तियाँ हैं—'भारती की उँगलियों ने एक जीवन के अनेक टुकड़े कर जहाँ-जहाँ, जिस-जिस रूप में सँवारने का उपक्रम साधा है, सब बड़े प्यार से पढ़ा जाता है। ख़ूब दूर तक भारती की दृष्टि जीवन के परमत्व को छू गयी है। समय की लाँबी दूरी है और तारुण्य के छू सपनों की चहल-पहल! भारती को सिद्ध करना है कि मेरी पंक्तियाँ मेरा पक्षपात नहीं हैं—घास की क़लम से नहीं, साँस की क़लम से!' ऐसी अद्भुत पंक्तियाँ केवल साहित्य देवता ही लिख सकते थे! सचमुच 'घास की क़लम' से नहीं अपितु 'साँस की क़लम' से लिखी ये छत्तीस कहानियाँ इस संग्रह में संकलित हैं।
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