कमलेश्वर कोई सूफ़ी सन्त तो नहीं थे, लेकिन इलाहाबाद से बम्बई की लम्बी यात्रा के चढ़ाव ने उन्हें चेहरों से दिलों को पढ़ने की दृष्टि ज़रूर दी थी। उन्हें अपनी भूख के साथ मेरी और सुरेन्द्र प्रकाश की खाली पेटों की भी ख़बर थी।
दुख में नीर बहा देते थे सुख में हँसने लगते थे सीधे-सादे लोग थे लेकिन कितने अच्छे लगते थे। यह उन दिनों का ग्वालियर था, जब मैंने इसे छोड़ा था। अब वहाँ भी रास्तों में भीड़ की रेलपेल ने नयी-नयी कालोनियों में बने फ्लैटों से दालान और आँगन छीन लिए हैं।
फ़िराक़ साहब सिर्फ़ शाइर नहीं थे, अपने के बड़े आलोचक भी, क्लासिकी शाहरों पर उनके लेख, साहित्य को नये सिरे से पढ़ने और समझने की कामवाद कोशिशें मानी जाती हैं। उनके जहन को कई भाषाओं की रोशनियों ने रोशन किया था। इनमें हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, संस्कृत के साथ अंग्रेज़ी का भी नाम है। वह महात्मा गांधी, पण्डित नेहरू, अबुल कलाम आजाद, मौलाना हसरत मोहानी, महाकवि निराला, डॉ. राधाकृष्णन आदि के युग की एक बड़ी शख्सियत थे। कुदरत की इस मेहरवानी का उन्हें अहसास भी था।
(संकलित लेखों से)
'अब उनके नेचर के बारे में और उनकी शख़्सियत के बारे में कुछ बातें आपसे साझा करना चाहती हूँ। सबसे पहले उनके नेचर के बारे में बात करें। उनके सम्पर्क में आने वाले सब जानते हैं कि वो बहुत ही सरल स्वभाव के थे। उनका नेचर बहुत ही अच्छा था और सबसे अलग था। बच्चे जैसा मासूम मन था। भरोसा करते थे तो पूरा करते थे। घर के कारोबार में कभी दखल नहीं देते थे। वर्सोवा में हमारा घर है। एक कमरे में उनकी लायब्रेरी बनी हुई है। यहाँ बैठकर वो लिखते थे। उनको दुनियादारी से कोई लेना-देना नहीं था। अवार्ड फंक्शन में नॉमिनेशन होने पर भी कभी नहीं जाते थे। उनकी ट्रॉफी दूसरे लोग लेकर आते थे। पार्टी में कभी नहीं जाते थे। किसी के यहाँ शादी-ब्याह में जाना पसन्द नहीं करते थे ।
जब हम खार में अमर अपर्टमेंट में रहते थे, घर में देर रात तक दोस्तों के साथ पार्टी करते थे और सबको अपने हाथों से खिचड़ी बनाकर खिलाते थे। ऐन्जॉय करने का उनका अपना तरीक़ा अलग था। एक जनाब साबिर दत्त थे। फ़न और शख्सियत मैगज़ीन निकाल रहे थे। शीक्रिया ग़ज़लें लिखते थे। एक कमल शुक्ल थे, जो पेशे से इंटीरियर डिजाइनर थे। वो भी शीक्रिया कविता लिखते थे। इनकी कविताएं और गुजुले मुझसे कम्पोज़ करवाते थे। उनमें करेक्शन करवाते थे। ये उनका टाइमपास था।
- पुस्तक की भूमिका से
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