संस्कृति' शब्द यों तो बहुत पुराना है, लेकिन जिस अर्थ में आज हम उसका प्रयोग करते हैं उस अर्थ में उसका इतिहास पुराना नहीं है। लातीनी मूल के शब्द 'कल्चर' का भारतीय संस्करण ‘संस्कृति' - मनुष्य को आदर्श के अनुरूप ढालने की प्रक्रिया है या जीवन-शैली, मूल्य-दृष्टि है या आचार-संहिता इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है। इस पुस्तक में समाज और संस्कृति से सम्बन्धित विचारों के माध्यम से समूचे विश्व में अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के प्रतिरोध को दर्ज किया गया है। 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति एवं ब्रिटिश औद्योगिक क्रान्ति ने यूरोप को निर्विवाद रूप से पूर्वी देशों के ऊपर सामाजिक-सांस्कृतिक-तकनीकी एवं सैन्य श्रेष्ठता प्रदान की जिससे पूर्व और पश्चिमी समाजों के रिश्ते हमेशा के लिए बदल गये। इसी दोहरी क्रान्ति ने पश्चिम एवं पूर्व के आर्थिक एवं सामाजिक आविर्भाव के परस्पर विरोधी प्रतिमानों को निर्मित किया। ये प्रतिमान साहित्य एवं संस्कृति के विविध क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं। इन्हीं सांस्कृतिक प्रतिमानों की अनेकार्थी सम्भावनाओं एवं छवियों का अन्वेषण पी.सी. जोशी, हबीब तनवीर, गिरीश कर्नाड, नामवर सिंह, मेरी ई. जॉन, एल. हबीब लुआई एवं निखिल गोविन्द के व्याख्यानों, आलेखों एवं शोध-पत्रों के माध्यम से किया गया है। संस्कृति के विविध रूपों को समाजशास्त्री, रंगकर्मी एवं आलोचक कैसे अलग-अलग तरह से देखते एवं विश्लेषित करते हैं, यह काफी रोचक विषय है। उम्मीद है कि संस्कृति के अध्येताओं के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
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