बेमिसाल कथाकार जोड़ी रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया की समूचे भारतीय कथा साहित्य में अमिट जगह है। साथ रहते और लिखते हुए भी दोनों एक-दूसरे से भिन्न गद्य और कहानियाँ लिखते रहे और हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करते रहे। रवीन्द्र कालिया संस्मरण लेखन के उस्ताद रहे हैं। ग़ालिब छुटी शराब हो या सृजन के सहयात्रियों पर लिखे गये उनके संस्मरण हों, उन्हें बेमिसाल लोकप्रियता मिली। उन संस्मरणों में जो तटस्थता और अपने को भी न बख़्शने का ज़िंदादिल हुनर था वह इसलिए सम्भव हो पाया कि वह अपने निजी जीवन में भी उतने ही ज़िंदादिल रहे। रविकथा इन्हीं रवीन्द्र कालिया के जीवन की ऐसी रंग-बिरंगी दास्तान है जो ममता जी ही सम्भव कर सकती थीं। पढ़ते हुए हम बार-बार भीगते और उदास होते हैं, हँसते और मोहित होते हैं। रविकथा एक ऐसी दुनिया में हमें ले जाती है जो जितनी हमारी जानी-पहचानी है उतनी ही नयी-नवेली भी।
ऐसा इसलिए नहीं होता कि वे रवीन्द्र कालिया को नायक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करती हैं बल्कि इसलिए होता है कि इस किताब के नायक ‘रवि’ का जीवन और साहित्य को देखने का नज़रिया उन्हें एक अलग कोटि में खड़ा करता है। किसी भी स्थिति में हार न मानना, यथार्थ को देखने का उनका विटी नज़रिया, डूबे रहकर भी निर्लिप्त बने रहने का कठिन कौशल उन्हें सहज ही ऐसा व्यक्तित्व देता है जो एक साथ लोकप्रिय है तो उतना ही निन्दकों की निन्दा का विषय भी। यह अलग बात है कि वे निन्दकों की निन्दा में भी रस ले लेते हैं। यह किताब सम्पादक रवीन्द्र कालिया के बारे में भी बताती है कि काम करने का उनका जुनून तब भी जस का तस बना रहता है जब वे अस्पताल से तमाम डाक्टरी हिदायतों के साथ बस लौट ही रहे होते हैं। यूँ ही कोई रवीन्द्र कालिया नहीं बन जाता। वह कैसे बनता है, रविकथा इसी का आख्यान है।
यह किताब एक साथ निजी और सार्वजनिक रंग रखती है। इसमें एक तरफ़ तो हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति का आत्मीय वर्णन मिलता है तो दूसरी तरफ़ रविकथा में दाम्पत्य जीवन के भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो बराबरी की बुनियाद पर ही महसूस किये जा सकते हैं। यह किताब रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के निजी जीवन की दास्तान भी है। यहाँ निजी और सार्वजनिक का ऐसा सुन्दर मेल है कि इसे उपन्यास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इसमें एक कद्दावर लेखक पर उतने ही कद्दावर लेखक द्वारा लिखे गये जीवन प्रसंग हैं जिनके बीच में एक- दूसरे के लिए प्रेम, सम्मान और बराबरी की ऐसी डोर है कि एक ही पेशे में रहने के बावजूद उनका दाम्पत्य कभी उस तनी हुई रस्सी में नहीं बदलता जिसके टूटने का ख़तरा हमेशा बना रहता है।
रविकथा को इसके खिलते हुए गद्य के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। हर हाल में पठनीय किताब।
- मनोज कुमार पाण्डेय
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review