ज़िन्दगी की भाषा में लिखी मधु कांकरिया की कहानियाँ हाड़-मांस की ज़िन्दगियों के जीवित दस्तावेज़ हैं। इस संग्रह की हर कहानी इस यथार्थ से हमें मुख़ातिब करती है कि 'नैतिकता, सच्चरित्रता और पवित्रता...ये सारे सत्य मुक्तात्मा पर लागू होते हैं पर जीवन की स्वाभाविक माँग भी होती है-इस माँग को ठुकराकर कोई भी सत्य हासिल नहीं किया जा सकता है।'
बदलाव का स्वप्न देखनेवाली मधु की कहानियाँ सर्वहारा समाज के तमाम मनुष्य विरोधी चेहरे को सामने लाती हैं। मधु को पढ़ना आधुनिक जीवन के सामूहिक अवचेतन में झाँकने जैसा है। पूरी निर्भीकता के साथ मधु अपने समय और समाज की मनुष्य विरोधी सत्ता संरचनाओं में भीतर तक धुंसकर कथानक के रेशे-रेशे बुनती हैं। इस संग्रह की कहानियाँ यह सोचने पर विवश करती हैं कि क्या अर्थ रह जाता है हमारी तथाकथित विकास यात्रा का यदि हम इन्सान को ही बचा नहीं सके ? मधु जैसे लेखकों की यह ललक है कि इस दुनिया को बदल देना चाहिए क्योंकि हज़ारों सालों की इस मानव सभ्यता में अभी तक हम इन्सान को प्यार करना नहीं सीख पाये हैं।
मधु की कहानियों के स्त्री पात्र सुन्दर हैं क्योंकि वे चेतना से भरे हुए हैं, वे कहते हैं-शायद यही है बूढ़ा होना, निरन्तर ख़ाली करते जाना खुद को। अब घोंसला ख़ाली है। पद्म पत्र पर पड़े जल बिन्दु को देखा है कभी?
'कुछ बचा हुआ भी था, अगली सुबह की उम्मीदसा। आँखों में आँसू और मन में एक संकल्प उभरा ...मैं ज़िन्दगी को व्यर्थ नहीं जाने दूँगी...यह वादा रहा मेरा तुमसे ओ ज़िन्दगी'....
इस संग्रह की कहानियाँ ऐसी उम्मीदों से जन्म लेती।
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