राजयोग : वेदान्त दर्शन में कर्मयोग की तरह राजयोग भी दर्शन की एक धारा के रूप में वर्णित है। ऋग्वेद में योग दर्शन का वर्णन मिलता है। वैदिक काल तक योग दर्शन का पर्याप्त विकास हो चुका था। योग दर्शन में राजयोग मनुष्य के अन्तर्जगत और उसकी चित्त-वृत्तियों की एकाग्रता पर बल देता है। योग दर्शन के व्याख्याकारों ने कर्मयोग, भक्तियोग की तरह समय-समय पर राजयोग की भी व्याख्याएँ की हैं। राजयोग के व्याख्याकारों में स्वामी विवेकानन्द की व्याख्याएँ सर्वाधिक सहज और ग्राह्य प्रतीत होती हैं। स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन की अन्य धाराओं की तरह राजयोग के जटिल पक्ष को सहज बनाकर प्रस्तुत करते हैं। उसकी व्यावहारिकता पर बल देते हैं। अन्य दर्शनों की भाँति उन्होंने राजयोग के दर्शन को भी समाजोन्मुख किया है।
'राजयोग' में स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी प्राचीन ऋषियों और योगियों की राजयोग से सम्बन्धित मान्यताओं की मीमांसा है जो आधुनिक समाज में दर्शन के नाम पर एक प्रागैतिहासिक दुरूहता समझी जाती रही हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय दर्शन की इस गूढ़ता को देश काल की आवश्यकताओं के अनुसार विश्लेषित किया है। यह पुस्तक स्वामी विवेकानन्द के राजयोग दर्शन से सम्बन्धित विचारों का अनुवाद है। अनुवादक हैं भारतीय इतिहास दर्शन के सुविज्ञ चिन्तक डॉ. रामविलास शर्मा। आज से छः दशक पूर्व किये गये इस पुस्तक के अनुवाद की भाषा में गजब की ताजगी है।
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प्रत्येक प्राणी में प्राण ही जीवन है। विचार प्राण की सबसे सूक्ष्म और सुन्दर क्रिया है। पर विचार ही से इति नहीं इंसटिंक्ट (Instinct) या स्वभाव मानव-क्रियाओं की सबसे नीची भूमि में है। यदि एक मच्छर काटे, तो उसे मारने के लिए हाथ अपने ही आप स्वभाव से उठ जाता है विचार इस रूप में भी प्रकट होता है। शरीर के सभी अपने आप होने वाली क्रियाएँ इसी के अन्तर्गत हैं। इसके उपरान्त विचार का दूसरा क्षेत्र है, जो चैतन्य होता है। मैं तर्क-वितर्क करता हूँ सोचता हूँ। किसी काम की भलाई-बुराई को तौलता हूँ, यह चैतन्य विचार है। फिर भी इससे अन्त नहीं होता। हम जानते हैं कि बुद्धि का क्षेत्र परिमित है। किसी हद तक बुद्धि सोच सकती है, उसके आगे नहीं। जिस दायरे में वह घिरी हुई है, वह वास्तव में बहुत संकुचित है। हम देखते हैं कि कभी विचार बाहर से भी इस दायरे के अन्दर घुस आते हैं। टूटते हुए नक्षत्रों के समान कुछ बातें उसमें आ जाती हैं और यह निश्चित है कि वे बाहर से आती हैं जहाँ हमारी बुद्धि पहुँच नहीं सकती। उन्हें लाने वाली शक्तियाँ बुद्धि की सीमाओं के बाहर ही हैं। मन का एक इससे भी ऊँचा क्षेत्र है। जब मनुष्य उस एकाग्रता की अवस्था को पा लेता है जिसे समाधि कहते हैं, तो वह साधारण बुद्धि की सीमाओं को लाँघ जाता है और उसे वह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है जिसे कोई तर्क या बुद्धि नहीं जान सकती। शरीर की सूक्ष्म शक्तियाँ जिनके रूप में प्राण प्रकट होता है, यदि वश में की जायें तो वे मस्तिष्क को ऊपर उठने तथा समाधि की अवस्था तक पहुँचने में सहायता देंगी जहाँ से वह स्वेच्छानुसार कार्य कर सकेगा।
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