संगीता गुन्देचा के नये कविता संग्रह के चार हिस्से हैं, 'पडिक्कमा', 'जी' कविताएँ, ‘पीले पत्ते पर पड़ी लाल लकीर' और 'उदाहरण काव्य' । ये सिर्फ औपचारिक विभाजन नहीं है। इन सभी हिस्सों में अलग तरह की कविताएँ हैं। 'परिक्रमा में परिक्रमा कविता के अलावा और भी कविताएँ हैं जिनमें प्रकृति और मनुष्य, मनुष्य और मनुष्य एवं मनुष्य और देवत्य के सम्बन्धों पर हल्का-सा प्रकाश पड़ता है, इतना हल्का कि वे कुछ-कुछ दिखायी भी देते हैं और कुछ-कुछ अदृश्य रहे आते हैं। कविता में उपस्थित ये अदृश्य इलाक़े ही पाठक की कल्पना के लिए अवकाश जुटाते हैं। इस हिस्से की सबसे अलग कविता 'पडिक्कमा' है। यह कविता अपने आत्मीयों की मृत्यु के बाद शोक के मन पर ठहर जाने के पहले के बेचैन अवसाद को प्रकट करती है। ऐसा प्रयास हिन्दी में बहुत कम हुआ है। इसमें 'बारिश' और 'बादल' जैसे शब्दों का दोहराव मानो शोक में ठहर जाने के पहले मन के हॉफने को ध्वनित करता है। यह कविता मृत्यु का अनुभव कर रहे व्यक्ति के मन का झंझावात है। जिसमें मानो पूरी प्रकृति समा गयी हो। इस संग्रह की 'जी' कविताएँ एक बुजुर्ग स्त्री का कुछ इस तरह वर्णन करती हैं जैसे वह बिना किसी भय या शोक के पूरी सहजता के साथ संसार छोड़कर जा रही हो। इन कविताओं को पढ़ते हुए जीवन और मृत्यु के बीच के नेरन्तर्य का गहन अनुभव होता है। पीले पते पर पड़ी लाल लकीर में छोटी कविताएं हैं, जिन्हें कवि ने 'हाइकुनुमा' नाम से पुकारा है। इन पर निश्चय ही जापानी काव्य रूप हाइकु का असर है क्योंकि ये कविताएँ एक क्षण के विराट रूप को बामने बल्कि उसकी ओर इशारा करने, उसे अनुभव के दायरे में लाने के प्रयास में लिखी गयी हैं। इनकी क्षमिक कौंध में मन का विराट भू-दृश्य आलोकित हो उठता है, जो कविता के खत्म होने के बाद भी देर तक बना रहता है, जिसकी रोशनी में हमें कुछ क्षणों के लिए ही सही हमारे आसपास का संसार अनोखा जान पड़ने लगता है। इस कविता संग्रह की विशेष बात यह है कि इसमें एक ही कवि की चार तरह की कविताएँ संगृहीत हैं। एक-दूसरे से अलग होते हुए भी ये कविताएँ कहीं गहरे स्तर पर एक ही कवि की रचनाएँ महसूस होती हैं पर एक ऐसी कवि की रचनाएँ जो नयी दिशाओं की खोज में रहती हैं। संग्रह की अन्तिम कविताएँ 'उदाहरण काव्य' प्राकृत संस्कृत की कुछ जानी-मानी कविताओं के अनुवाद और पुनर्रचनाएँ हैं। इनमें से अधिकतर कविताओं में शृंगार रस उजास की तरह फैला है और इन्हें पढ़ते हुए हमारी संस्कृति में शृंगार रस की सहज व्याप्ति अनुभव होती है। इन अनुवादों और पुनर्रचनाओं में ये सारी प्राकृत संस्कृत कविताएँ हमें आज की कविताएँ जान पड़ती हैं, मानो ये कवि सैकड़ों वर्षों के पार हमारे समय में आकर हिन्दी में कविताएं लिख रहे हों।
-उदयन वाजपेयी
समकालीन अभिव्यक्ति की छापों को अपने भीतर समेटे संगीता गुन्देचा की कविताएँ अर्थमयता और अत्यन्त कल्पनाशीलता के साथ धीरे-धीरे अपनी दीप्ति से हमारे मानस का विस्तार करती हैं।
- रतन थियाम
संगीता गुन्देचा की ये कविताएँ मृत्यु और प्रेम के चारों ओर एक जाल-सा बुनती हुई दिखाई देती हैं। इन कविताओं के विषय अवश्य ही अलग-अलग हैं मगर इनकी शब्द रचना अपने भीतर प्रेम, रहस्य एवं मृत्यु के न मिटने वाले अहसास को अपने भीतर समोये हुए हैं। एक ऐसे प्राइमर की तरह जो दीवार पर किये गये हज़ारों रंगों के नीचे हमेशा उपस्थित रहता है। बारिश, बादल, प्रकृति, जन्म और पुनर्जन्म सब मिलकर इन कविताओं को एक ऐसी ख़ामोश नदी के किनारे ले जाकर खड़ा कर देते हैं, जिसके एक छोर पर दर्शन है और दूसरे पर साहित्य । इन कविताओं की अनूठी संवेदनशीलता और भाषाई चमत्कार इन्हें कालजीवी रखेंगे। इस विश्वास के साथ मैं संगीता गुन्देचा को मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
-ख़ालिद जावेद
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