इस ग्रन्थ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, कल्पना- प्रवणता, विश्व मानवता, नारी मुक्ति, आत्मवेदना को ध्यान में रखकर जहाँ एक ओर छायावाद के पुनःपाठ का प्रयत्न हुआ है तो वहीं छायावाद की विकास-यात्रा पर भी नये सिरे से विचार की कोशिश हुई है। छायावाद के सांस्कृतिक विवेचन, छायावादी कविता और गद्य को ध्यान में रखकर छायावाद को नये सिरे से देखने की कोशिश द्रष्टव्य है। छायावाद युगीन कहानियाँ, पत्रकारिता, चिन्तन और सांस्कृतिक उत्थान को भी नये सिरे से रूपायित करने का प्रयत्न किया गया है। राम की शक्तिपूजा हो, निरुपमा हो, कामायनी हो, पल्लव हो, प्रथम रश्मि हो या फिर महादेवी का काव्य हो, सबको नये सिरे से देखने का प्रयत्न लेखकों ने किया है। स्त्री-सशक्तीकरण, रोमांटिक कविता के साथ-साथ छायावादी कवियों की आलोचना का भी प्रयत्न महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।
आलोचना की उधेड़बुन के बीच छायावाद के रचनात्मक परिदृश्य को पहचानने की कोशिश भी महत्त्वपूर्ण है। नाट्य-साहित्य और छायावाद की चेतना, भक्ति संवेदना, मूल्य-बोध, विप्लव बोध, करुणा, सौन्दर्य, औदात्य, व्यंग्य और ऐतिहासिकता की दृष्टि से छायावाद को देखने। की बात सदैव होती रही है । इस दृष्टि से भी लेखकीय प्रयत्न इस पुस्तक में है। दार्शनिक बोध, आनन्दबोध, पर्यावरण, युग-जीवन, दुःखवाद, प्रकृति-चित्रण, मानवीकरण और भाव प्रकाशन की नवीनता की दृष्टि से भी लेखकों ने अपना मन्तव्य अपने आलेखों में दिया है। कुल मिलाकर, जीवन और प्रकृति के बेजोड़ चित्र जो छायावाद में विद्यमान हैं, उनका पुनः प्रकाशन सदैव नवीन दृष्टि प्रदान करता है। आज जब हम छायावाद की शताब्दी मना रहे हैं तो छायावाद विषयक भ्रान्त धारणाओं से मुक्ति भी आवश्यक है।
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