मैं क्यों लिखता हूँ -
अपनी चेतना और विश्वास में सदा सप्रयोजन ही लिख रहा हूँ। यह तो नहीं कह सकता कि मैंने बहुत अधिक लिख डाला है, परन्तु मेरी प्रकाशित रचनाएँ इतनी अवश्य है कि बहुत से लोग मुझे लेखक के रूप में जान गये हैं। ऐसे भी अनेक पाठक है जो रचना पर लेखक का नाम देखे बिना रचना की शैली, विषय-वस्तु और निष्कर्ष से मेरी रचनाओं को पहचान सकते हैं। इस पर भी यदि यह बताना पड़े कि मैं क्यों लिखता हूँ तो ऐसा जान पड़ता है कि लिखने के मेरे प्रयत्न अधिक सार्थक नहीं हुए।
इसलिए अब बहुत स्पष्ट उत्तर दूँ :
मैं जीने की कामना से जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखता हूँ। बहुत चतुर और दक्ष न होने पर भी यह बहुत अच्छी तरह समझता हूँ कि मैं समाज और संसार से परान्मुख होकर असांसारिक और अलौकिक शक्ति में विश्वास के सहारे नहीं जी सकूँगा। इसलिए मैं जी सकने की कामना में, जी सकने के प्रयत्न के लिए समाज और संसार की ओर देखता हूँ, उनसे अपना हेतुभाव का अटूट सम्बन्ध अनुभव करता हूँ। मेरा सुनिश्चित दृढ़ विश्वास है कि मैं समाज और अपने समाज के व्यक्तियों के प्रतिक्षण सहयोग और सहायता के बिना क्षण-भर भी नहीं जी सकूँगा, इसलिए मैं जीवन की प्रक्रिया और जीवन के मार्ग में अनुभव होने वाली अड़चनों और उचित तथा विकासशील जीवन की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण अपनी रचनाओं द्वारा समाज के सम्मुख रखने का आग्रह करता रहता हूँ। मैं अपनी अभिव्यक्ति और रचनात्मक प्रवृत्ति को सामाजिक भावनाओं और परिस्थितियों से स्वतन्त्र आत्मनिष्ठ प्रवृत्ति अथवा अपनी आत्मा की पुकार नहीं समझता।
अपनी अभिव्यक्ति अथवा रचना-प्रवृत्ति को मैं अपने समाज की परिस्थितियों, अनुभूतियों और कामनाओं की सचेत प्रतिक्रिया ही समझता हूँ और उन्हें अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार अपने सामाजिक हित के प्रयोजन से अभिव्यक्त करता रहता हूँ।
-लेखक की क़लम से
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