आधुनिक भारतीय रंगलोक - नाट्य का मूलाधार लोक है। लोक चाहे इहलोक-परलोक के रूप में हो चाहे त्रिलोक या सप्तलोक के रूप में। नाट्य प्रयोग इसे विभिन्न रूपाकारों में मंच पर साकार करता है। इन प्रयोगों के समग्र समवाय का नाम ही रंगलोक है। कला, विशेषकर नाट्य-कला का अध्ययन एवं मूल्यांकन रचनात्मक और लोकदृष्टि के स्तर पर एक साथ होना चाहिए। हिन्दी नाट्य-समीक्षा में इस समन्वित सम्यक् दृष्टि का प्रायः अभाव रहा है। प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक अभाव की पूर्ति का प्रयास है। यह पुस्तक आधुनिक भारतीय रंगलोक के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी रंगकर्म के विविध पक्षों का विवेचन-विश्लेषण करते हुए उसके अनेक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक प्रश्नों के व्यावहारिक उत्तर तलाशने का प्रयत्न करती है। चर्चित नाट्यालोचक डॉ. जयदेव तनेजा ने इसमें रंगमंच के बहुचर्चित पहलुओं को नये कोण से देखने तथा उसके अछूते आयामों को उद्घाटित किया है। हिन्दी नाट्य-समीक्षा में सम्भवतः पहली बार नाट्यालेखों के बजाये नाट्य प्रस्तुतियों को अध्ययन का प्रमुख आधार बनाया गया है। आशा है, नाट्य-कला के गम्भीर अध्येताओं, रंगकर्मियों एवं शोधार्थियों को यह पुस्तक रुचिकर और उपयोगी लगेगी।
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