थाने के नगाड़े - रमाकान्त श्रीवास्तव की कहानियों को पढ़ना एक सुलझे हुए जानकार आत्मीय के साथ आसपास की घटनाओं, स्थितियों और व्यक्तियों को समझना है। रमाकान्त श्रीवास्तव को जीवन आचरण के सौन्दर्य की गहरी पहचान है। उनके पास संगीत एवं कलाओं के सौन्दर्य बोध के संस्कार ही नहीं, वे घटनाओं और व्यक्तियों को देखने की अन्तर्भेदी दृष्टि भी रखते हैं। वे घटना खण्डों, चेष्टाओं को परस्पर मिलाकर प्रवृत्तियों, चरित्रों का सन्धान करते हैं और उसे नाटकीयता में साक्षात कर सकते हैं। वे उन प्रगतिशील रचनाकारों में से नहीं हैं जो सैद्धान्तिक समीकरणों को लेखन में उतारने को इतने आतुर होते हैं कि रचनाएँ इकहरी हो जाती हैं। रमाकान्त एक घटना-स्थिति को अगली घटना स्थिति से स्वाभाविक ढंग से सटाते हैं। इससे कहानी की गति स्वतन्त्र होकर आगे बढ़ती है। रचना छोटे-छोटे विवरण, चित्रण खण्डों (डिटेल्स) का पुंज होती है। इन विवरण चित्रण खण्डों में दरार नहीं होती। वे एक अखण्ड समूची वस्तु लगते हैं। इसके लिए लाज़िमी है कि हर आगामी विवरण-चित्र या वक्तव्य पूर्ववर्ती का परिणाम लगे। रचना में गति स्थितियों के द्वन्द्व से हो। रमाकान्त श्रीवास्तव का जीवन पर्यवेक्षण स्पृहणीय है। वे इस विषय में अमरकान्त और हृदयेश के सहचर हैं जो प्रभावशाली क्लोजअप दे सकते हैं। रमाकान्त श्रीवास्तव के शिल्प में व्यंग्य-विनोद प्रायः सर्वत्र विद्यमान है। ऐसा व्यंग्य समझ का ही एक तेवर है। पाखण्ड, असामाजिकता, स्वार्थ, ओछापन बहुत प्रच्छन्न हैं। उदारता, सामाजिकता, देशभक्ति मानवता के छद्म ने उसे ढँक रखा है, लेकिन समझदार आदमी सब समझ लेता है। वह प्राय: कुछ कर नहीं सकता। पाखण्ड के प्रति उसका सारा तिरस्कार उसके विवरण-चित्रण के ढंग से आता है। यह लेखन का प्रतिष्ठान विरोध है। यह ढंग, व्यंग्य की यह रीति, रमाकान्त श्रीवास्तव को हरिशंकर परसाई से जोड़ती है, लेकिन मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि रमाकान्त ने कथा और व्यंग्य-लेखन की अपनी शैली अर्जित की।——विश्वनाथ त्रिपाठी
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