स्थिर चित्र - जगन्नाथ प्रसाद दास उड़िया के समकालीन बहुचर्चित कवियों में से एक हैं जिनसे हिन्दी पाठक भी अब अपरिचित नहीं है। उनके अब तक सात कविता-संग्रहों के हिन्दी रूपान्तर पाठकों के सम्मुख आ चुके हैं। उनमें से दो 'लौटते समय' और 'शब्द-भेद' भारतीय ज्ञानपीठ से पहले ही प्रकाशित हैं। प्रस्तुत कृति 'स्थिर चित्र' ज्ञानपीठ द्वारा दो-तीन वर्ष पूर्व आरम्भ की गयी 'भारतीय कवि' श्रृंखला की एक नयी कड़ी है। श्री दास की आरम्भिक कविताओं में उनका काव्यपुरुष प्रायः आत्ममग्न है। अपने अन्तरंग क्षणों का, अपने चेहरे और मुखौटों का अपनी स्नेहसिक्त हताशाओं, प्रत्यय और अनुरागों का वह विलम्ब आत्मनेपदी रहा है। धीरे-धीरे आत्मलीनता से मुक्त होकर वह रास्ता, रास्ते के लोग, कालाहांडी, बालियापाल क़स्बे में रहनेवाले छायानटों को अन्दर खींच लेता है। और फिर इन सबको लेकर शब्द का चित्र-शिल्पी स्थिर चित्र ही आँकता है, ताकि सहृदय पाठक सहज एवं निश्छल रूप से उसका साक्षात्कार कर सकें। यहाँ स्वप्न से छुटकारा पाने के लिए वह एक नयी राह तलाशता है, किन्तु उस यथार्थ से भी पुनः स्वप्न में लौटने को बाध्य होना पड़ता है। कौन बाध्य करता है? क्या वह अबाध्य हृदय है रक्तमांस का प्राण-पुतला? स्वप्न से छुटकारा चाहता हुआ काव्यपुरुष फिर क्यों इस रूक्ष यथार्थ से स्वप्न की ओर बढ़ जाता है? लेकिन नहीं अब उसका काव्यपुरुष बन्द कमरे में बैठे रहने को तैयार नहीं। वह उस दिशा में आगे बढ़ जाता है जहाँ भाग्य ही प्रताड़ित है, जहाँ सारे भूचित्र समय से परे खड़े होते हैं जो हमारे वर्तमान और चिरन्तन भविष्य हैं। 'स्थिर चित्र' उसी मार्मिक भूमि की ओर संकेत करता है । प्रस्तुत संकलन की कविताओं में प्रवेश पाने के लिए डॉ. सीताकान्त महापात्र का 'प्राक्कथन' पाठक की मनोभूमि के निर्माण में पर्याप्त सहायक बनता है। हिन्दी के काव्य मर्मज्ञ पाठकों के लिए भारतीय ज्ञानपीठ की एक और भेंट।
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review