प्रेमचन्द : हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्बन्धी कहानियाँ एवं विचार -
प्रेमचन्द की प्रतिष्ठा एक कहानीकार के रूप में है। लेकिन अपने समय के समाज और उसके पिछड़ेपन के बारे में जितना उन्होंने सोचा और कहा, शायद ही किसी और ने कहा हो। उपनिवेशवादी समाज, साम्प्रदायिकता, पिछड़ेपन के ख़िलाफ़ अपनी प्रगतिशील सोच को उन्होंने कहानियों में पिरो दिया। उनके विचार न सिर्फ़ उनके समय, बल्कि आज के यथार्थ पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी की तरह हैं।
यह एक बड़ी सच्चाई है कि धर्म अपनी ढेर सारी कमज़ोरियों और पाखण्ड के बावजूद समाप्त नहीं होता। सोवियत संघ के विघटन के बाद उससे जुड़े राष्ट्रों में धार्मिक भावनाएँ फिर प्रबल हो उठी हैं। ऐसे में प्रगतिशील दृष्टिकोण के बावजूद यही अनुमान किया जा सकता है कि समय के प्रवाह में धार्मिक भावनाएँ दब जाती हैं, समाप्त नहीं होतीं। प्रेमचन्द को इसका ज्ञान था, इसीलिए वे धर्मों को समाप्त करने के बदले इनमें सामंजस्य के बिन्दु ढूँढ़ते हैं, ताकि व्यक्ति सम्प्रदायवादी भावनाओं से ऊपर उठकर राष्ट्र के प्रति भी अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन कर सके। आज भी हमें अपने-अपने धर्मों के वर्चस्व की चिन्ता मनुष्यता की चिन्ता से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है। हम अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, ऐसा हमने विगत वर्षों से संकेतित किया है। ऐसे में प्रेमचन्द को पढ़ना न सिर्फ़ सुखद बल्कि एक दिशा देने वाला है।
यह पुस्तक प्रेमचन्द के विस्तृत रचना-संसार में से चुनकर बनाये किसी गुलदस्ते की तरह है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्बन्धी कहानियों और विचारों को इकट्ठा किया गया है। शोधार्थियों और आम पाठकों के लिए यह पुस्तक निश्चय ही उपयोगी होगी।
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