कविवर बच्चन के साथ - हिन्दी के उस लगभग अविश्वसनीय दौर में बच्चन जी सहित ऐसे कितने ही व्यक्तित्व थे, जिनकी याद से मन में ये पंक्तियाँ उमड़ने-घुमड़ने लगती हैं "वो सूरतें इलाही किस देस बसतियाँ हैं। अब जिनको देखने को आँखयाँ तरसतियाँ हैं॥" धीरज सिर्फ़ इस तरह मिल सकता है कि जो गुज़र गये, वे कभी-न-कभी यादों में लौटेंगे और इस तरह दोबारा हमारे इर्द-गिर्द होंगे दुर्भाग्यवश हमारी भाषा में ऐसा पर्याप्त लेखन मौजूद नहीं, और जो है भी, वह अधिकतर उखाड़-पछाड़ की मानसिकता से रचा गया। सौभाग्यवश, अजितकुमार उन कुछ बचे-खुचे वरिष्ठ लेखकों में हैं, जिन्हें पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा-दीक्षा आदि के नाते पिछली पीढ़ी के अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में रहने का सुअवसर मिल सका। उन्होंने 'दूर वन में' तथा 'निकट मन में' के अपने संस्मरणों में ऐसे कुछ लोगों का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण किया भी है। प्रस्तुत कृति में कविवर बच्चन के साथ उनका वह निजी, अन्तरंग वार्तालाप संकलित है, जिससे छायावादोत्तर काल के एक बड़े कवि के लेखन और जीवन पर काफ़ी रोशनी पड़ सकती है। इन अंकनों का अतिरिक्त महत्त्व है इनकी प्रामाणिकता। एक विशेष अर्थ में ये अंकन बच्चनजी कृत आधुनिक क्लासिक उनकी आत्मकथा-श्रृंखला 'क्या भूलूँ, क्या याद करूँ' की नींव में मौजूद पत्थरों जैसे जान पड़ेंगे। कवि के अध्ययन में इन अंकनों के नाते पाठकों की रुचि बढ़ेगी या अन्यथा इनकी कोई उपयोगिता सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि समर्पित और आडम्बरहीन लेखन से समृद्ध यह पुस्तक पाठकों के मन को खूब छुएगी।
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