गिर्दे महताब - उन दिनों लाहौर की रातें जागती थीं। जहाँ अब नयी आबादियाँ बस गयी हैं। वहाँ हरे-भरे जंगल थे। वापटा हाउस की जगह मैट्रो होटल था। जहाँ रात गये तक शहर के ज़िन्दा दिल जमा होते थे। असेम्बली के सामने मल्का के बुत के चारों तरफ़ दरख़्तों की सभा थी, जो दायरे बनाकर रात भर नाचते थे और 'आते जाते मुसाफ़िरों' को अपनी छाँव में लोरियाँ देकर सुलाते थे। सड़कों पर कोई-कोई मोटर नज़र आती थी। ताँगे थे और पैदल चलने वाली मख़्लूक़। न रायटर्स गिल्ड थी न आदम जी और दाउद प्राइज़ थे और न ग़ैरमुल्क़ी वज़ाइफ। जिस तरह क़यामे-पाकिस्तान के वक़्त सरकारी दफ़्तरों में जदीद क़िस्म का आरायशी सामान न था। बस चन्द पैंसिलों और चन्द बेदाग़ काग़ज़ थे और बाबा-ए-क़ौम का ज़हन और पूरी क़ौम का अज़्म था। इसी तरह अदीबों के पास ना कारें थीं न फ़्रिज और न टेलीविज़न सैट। न बड़े होटलों के बिल अदा करने के लिए रक़म थी। इनकी जेब में चन्द आने और एक मामूली सा क़लम होता था और एक काग़ज़ पर सादा तहरीर होती थी। यार सब जमा हुए रात की तारीक़ी में कोई रोकर तो कोई बाल-बनाकर आया। रात की में जमा होने वाले ये हमअस्र अपनी आँखों में रफ़्तगाँ के ख़्वाब और मुस्तक़बिल का सूरज लेकर घर से निकलते थे और लाहौर के चायख़ानों, कुतबख़ानों और गलियों में सितारों की तरह गर्दिश करते नज़र आते थे। मगर इनकी रविश नये अदब के मैमारों और मुशायरे के शाइरों से अलग थी। ये तन्हाई में छुपकर रो लेते थे। मगर रिक़्क़त भरी समानती तहरीरें नहीं लिखते थे, न बाल बिखराकर महफ़िले-अदब में आते थे। इन्हीं दिनों एक लड़का मुझे एक चायख़ाने में नज़र आया जिसकी आँखों में बेदारी की थकन और मुस्तक़बिल के ख़्वाब थे। सफ़ेद क़मीज सफ़ेद सलवार पहले हुए था और वो बाल बनाकर आया था। अजनबी रहजनों ने लूट लिए कुछ मुसाफ़िर तेरे दयार से दूर। जब मैंने उससे शेर सुना तो यूँ लगा जैसे ये मेरी अपनी कहानी है। अहमद मुश्ताक़ से मेरी दोस्ती की बुनियाद जब से है कि वो घर से एक शाइर का दिल लेकर आया था अब रात थी और गली में रुकना उस वक़्त अजीब सा लगा था। ये गली जिसमें चन्द हमअस्र चलते-चलते रुककर एक जगह मिले थे, क़यामे-पाकिस्तान के बाद एक नये तर्ज़े-अहसास की अलामत है।—नासिर काज़मी
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