ग़ालिब छुटी शराब' के प्रकाशन के दौरान हिन्दी के पाठकों में अद्भुत उत्साह और उमंग देखने को मिली। पाठकों की सक्रिय भागीदारों ने यह मिथक भंग कर दिया कि हिन्दी में अच्छी पुस्तकों के पाठक नहीं है। यह पाठकों का ही दबाव था कि एक माह के भीतर 'ग़ालिब छुटी शराब' का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। पेपरबैक संस्करण के रूप में। जिसने भी पुस्तक हाथ में ली वह पूरी पढ़े बग़ैर छोड़ नहीं पाया। अपनी अपूर्व पठनीयता, गद्य के लालित्य, भाषा रवानगी और अपने को भी मुआफ़ न करने को लेखक की ऐसी ज़िद कि पाठकों ने अब तक प्रकाशित संस्करण हाथों-हाथ लिये। साल भर के भीतर पुस्तक का तीसरा संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण प्रेस में है। पत्र-पत्रिकाओं की राय भी इससे भिन्न नहीं। 'ज़ी मार्निंग शो' ने पुस्तक के अंग्रेज़ी संस्करण की ज़रूरत को रेखांकित किया, 'इंडिया टुडे' ने लिखा कि 'कालिया शराब पर ही विजय प्राप्त नहीं करते, पाठकों का दिल भी जीत लेते हैं।' 'इंडिया टुडे' तथा 'तद्भव' ने 'ग़ालिब छुटी शराब' के सन्दर्भ में उग्र की कालजयी कृति 'अपनी ख़बर' का स्मरण किया। कृष्णमोहन लिखते हैं कि हिन्दी में इसके जोड़ की फिलहाल एक ही किताब दिखती है— पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की 'अपनी ख़बर'। 'कथाक्रम' के एक साक्षात्कार में कमलेश्वर इसे एक मूल्यवान कृति के रूप में रेखांकित करते हैं। शराब छोड़ने का इससे बेहतर और कोई रचनात्मक इस्तेमाल हो ही नहीं सकता था।—इंडिया टुडे कालिया के संस्मरणों में एक अभिव्यक्ति उसकी लेखकीय या व्यावसायिक ज़िन्दगी का दर्दनाक आँकड़ा पेश करती है।—हिन्दुस्तान कालिया हों, राजेन्द्र यादव हों या कमलेश्वर सबके पास जीवन्त भाषा है और जिये हुए को फिर से जीने का हुनर भी। रवीन्द्र कालिया के संस्मरण पढ़ते हुए यह विचार ज़रूर उत्पन्न होता है कि फक्कड़पन, ज़िन्दादिली, संघर्षशील जीवन और कबीराना ठाठ कहीं-न-कहीं रचनात्मकता की ज़मीन को भी जर्खेज़ कर रहे होते हैं। वह अपने क़द के मुताबिक़ किसी को छोटा नहीं होने देते, बल्कि अपनी दुर्बलताओं और ज़िदों का जी खोलकर उल्लेख करते हैं।—राष्ट्रीय सहारा अन्तिम आवरण पृष्ठ - 'ग़ालिब छुटी शराब' पढ़कर उससे ज़्यादा मस्ती तो मुझ पर छा गयी मजा आ गया। सामने होते बाँहों में भरकर बधाई देती।—मन्नू भंडारी एक ऐसे समय में, जो आम आदमी के विरुद्ध जा रहा है, जब आदर्शवाद, राजनेताओं, मसीहाओं पर से विश्वास उठना शुरू हो जाय, जब चीज़ें बड़ी बेहूदी दिखाई पड़ने लगें, जब संवाद का शालीन सिरा ही न मिले—ऐसे समय में लेखकों ने ख़ुद को उधेड़ना शुरू किया। पहले अपने को तो पहचान लो। देखो तुम भी तो वैसे नहीं हो। रवीन्द्र कालिया की 'ग़ालिब छुटी शराब' कितनी मूल्यवान पुस्तक है।—कमलेश्वर 'ग़ालिब छुटी शराब' पढ़कर सोच रहा था, मुलाक़ात होगी तो तारीफ़ करूँगा। यह रचना आप ही के लिए भारी चुनौती है, बधाई।—अमरकान्त हिन्दी में इस तरह से लिखा नहीं गया। हिन्दी में लेखक आमतौर पर नैतिक-भयों और प्रतिष्ठापन के आग्रहों से भरा है। हिन्दी में बड़े और दमदार लेखक भी यह नहीं कर सके। तुम बहादुर और हमारी पीढ़ी के सर्वाधिक चमकदार लेखक हो। इस किताब ने तुम्हें हम सब से ऊपर कर दिया है। हिन्दी में यह अप्रतिम उदाहरण है। दिस बुक इज़ ग्रेट सक्सेस।—ज्ञानरंजन
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