देस बिदेस दरवेश - दरवेश देश और वेष में बँधकर नहीं रहता इसलिए उसकी दास्तान दुनिया की होकर भी दुनियादारी से कुछ हटकर होती है। वह निरपेक्षमी हो लेता है। क्योंकि उसकी ज़रूरतें ही कितनी?... मात्र झोली भर। गोया कि वह अपना घर कन्धे पर टाँग कर चलता है। इस घर में भी कितना सामान? 'चन्द तस्वीरें बुताँ चन्द हसीनों के ख़त—बाद मरने के मेरे घर से ये सामाँ निकला' की तर्ज़ पर कुछ अनुभव और कुछ ज्ञान। यह तो सचाई है कि ज्ञान और अनुभव के लिए देशाटन बहुत आवश्यक है। हमारे पुराने देश और समाज में तीर्थाटन की परम्परा रही पर उसमें अनुभव, ज्ञान से अधिक पुण्यसंचय का भाव जुड़ गया। दरवेश की 'अमरनाथ यात्रा' व 'गंगासागर जात्रा' आस्था की उत्सुक यात्रा है... अनुभव के मार्ग का बोधरोहण है जिसमें अल्पज्ञता के स्वीकार का संकोच नहीं होता। यहाँ अन्धविश्वासों की परम्परा का अनुसन्धान नहीं लोक की आस्था का आचमन है। आज के पर्यटन में जानकारी अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है और सौन्दर्य सुविधा से तथा सुविधा बाज़ारू दुकानदारी से जोड़ की जाती है। यहाँ मिलना भेंटना, जानना-समझना सीधे धन की मात्रा से जा जुड़ता है। इस तरह देशाटन या तो दरवेश की झोली में समाता नहीं या झोली ही फाड़ देता है। देशाटन द्विविध कहा गया है—शुकमार्गी व पिपीलिका-पथ। पहले में धरती के ऊपर उड़ते हुए नीचे विहंगम दृष्टि डालते जाइए तथा दूसरे में क़दम-क़दम बढ़ते, ठहरते आसपास सूँघ, टोहकर आगे बढ़ना होता है पर संयोग कहें या भाग्य कि कभी-कभी चींटी पंखों पर भी चढ़ जाती है। 'बिदेस यात्रा' शायद इसी की बानगी हैं। यूँ दीन-दुनियाँ से थोड़ा-थोड़ा निरपेक्ष दरवेश भी इसी बाग़-बग़ीचे का एक तिनका या पत्ता है अतः जानना उसे भी होगा कि इतिहास का काला पक्षी जीवन की मुँडेर पर आकर बोलने लगा है। उसकी कुटिल दृष्टि कब दरवेश के कन्धे और झोली पर जा ठहरे, क्या पता! यों यह यात्राएँ असाधारण नहीं है, साधारण ना ही इनकी विशेषता है।
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