दशकंधर ननमेयं तु कस्यचित् - श्रीराम और रावण पर प्रामाणिक ग्रन्थ रामायण ही है—वाल्मीकि रचित रामायण। प्रस्तुत नाटक में इसी को मुख्य स्रोत बनाया गया है। द्रष्टव्य है कि रावण विषयक विस्तृत विवरण रावण-वध के पश्चात् ही ज्ञात होता है, इस आधार पर भी रामायण के अनेक अंश प्रक्षिप्त कहे जाते हैं। दूसरी ओर तुलसी की 'रामचरितमानस' एक भक्त की दृष्टि है, जहाँ कवि अपने आराध्य के प्रति बहुत भावुक रहता है, यहाँ मुझे रावण के प्रति आग्रही हो जाने का कारण एवं सम्भावनाएँ दोनों ही नज़र आती हैं। स्वाभाविक है, जिस प्रकार गुब्बारे को एक ओर से दबाने पर दूसरी ओर का हिस्सा अधिक फूल जाता है, उसी प्रकार श्रीराम आदि के चरित्र को उकेरकर बाहर निकालने के लिए सम्भवतः यह आवश्यक था कि कोई एक दुश्चरित्र अवश्य हो और ऐसा हुआ भी। रावण विद्वान और मेधावी था। रावण का कुल ऋषियों का रहा, जहाँ यज्ञ-होम हुआ करते थे। रावण भी यह सब जानता और करता था। हम उसकी वंश-परम्परा, इतिहास, संस्कृति आदि के विषय में बहुत कुछ क्रम से नहीं जानते। इस नाटक में रावण के जन्म से पूर्व और पश्चात् का वर्णन है। किस प्रकार वह अपने मामाओं की राजनीति का शिकार बना और फिर उसने रुकने का नाम न लिया। मृत्यु प्राप्त होने से पूर्व उसके मन में क्या चल रहा होगा? निकटस्थ उसे क्या कह रहे होंगे? उन प्रश्नों के उत्तर में दशकंधर ने क्या कहा होगा? युद्ध क्यों न समाप्त कर पाया वह? किंवदन्ती है कि करहाते रावण से लक्ष्मण ने ज्ञान प्राप्त किया था, क्या था वह ज्ञान? यदि बातचीत हुई होगी तो वह क्या रही होगी? रावण का अन्तर्द्वन्द्व और अन्त में स्वीकारोक्ति ही नाटक को प्रभावशाली बनाती है।
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