‘आलोचना का द्वन्द्व’ - "वास्तव में नयी कविता, नयी कहानी या नये नाटक के समान ही एक अच्छी 'नयी समीक्षा' की भी पहचान होनी चाहिए।" यह कथन 'समीक्षा की अनिवार्यता और उपयोगिता' पर विश्वास करने वाले प्रखर आलोचक देवीशंकर अवस्थी के आलोचना कर्म का एक ध्येय भी रहा है। अपने प्रारम्भिक लेखन काल से ही वे इस बात की वकालत करते रहे हैं कि "समीक्षाओं या समीक्षकों को गाली देने के स्थान पर यह कहीं अच्छा होगा कि अच्छी समीक्षाओं की चर्चा हो। उन्हें दुबारा छापा जाए या कि संकलित रूप में प्रकाशित किया जाए।" 'विवेक के रंग' और 'नयी कहानी : सन्दर्भ और प्रकृति' समीक्षा संकलनों के माध्यम से उन्होंने अपने विचार को वास्तविकता में स्थापित भी करके दिखाया। श्री देवीशंकर अवस्थी हिन्दी आलोचना का मार्ग प्रशस्त करने के साथ ही हिन्दी आलोचना के लिए सद्भावनापूर्ण नया माहौल भी बनाने की कोशिश में सतत सक्रिय रहे। 'आलोचना का द्वन्द्व' में संकलित, सन् 1960 में लिखा उनका यह वाक्य आज भी कितना सार्थक है और साथ ही चेतावनी भी देता है : "इसी प्रसंग में यह भी कह देना चाहता हूँ कि सृजनशील लेखकों द्वारा लिखी गयी समीक्षा एवं पेशेवर आलोचकों द्वारा लिखी गयी समीक्षा के मध्य कृत्रिम दीवारें खड़ी करना ठीक नहीं है।...दोनों ही प्रकार के लेखक एक रचना विशेष के प्रबुद्ध पाठक मात्र हो जाते हैं।"
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