लोक शब्द व्यंजक है। इसका अर्थ है- (लोक में रहने वाले लोग अथवा जन। उनका आचरण, विश्वास, नित्य एवं नैमित्तिक क्रियाएँ एवं घटनाएँ और समष्टिगत शिवात्मक अथवा मांगलिक अनुष्ठान और सामूहिक जागरण के वे सब कार्य जो समाज सापेक्ष हों। जो कुछ जन-सामान्य में व्याप्त है और उसके व्यवहार का आधार एवं निदर्शन है, वह सब लोक के अन्तर्गत आता है। जिस समाज में हम रहते हैं, वह लोक जीवन से समुद्भूत है। ‘लोकमेवाधारं सर्वस्य' अर्थात् लोक ही सबका आधार है (स्वोपज्ञ)। लोक स्थायी है। आश्रय भूत है। लोक समष्टि (समूह) में है। लोक समग्र है, चिरन्तन है। लोक स्वायत्त है। इसीलिए लोक सत्यासत्य की तुला है। 'लोक' ही सभी शास्त्रों का बीज है। लोक की अकल्पनीय शक्ति है। आज लोक की तमाम शब्दावली शास्त्रीय भाषाओं को संजीवनी प्रदान करने की सामर्थ्य रखती है। हिन्दी अथवा कोई भी भारतीय भाषा अपनी अभिव्यक्ति के नवाचार में लोक की ओर ही अभिमुख होती है। इसीलिए जहाँ शास्त्र निर्णय नहीं कर सका है, वहाँ वैयाकरणों ने लोक को प्रमाण मानकर समाधान प्रस्तुत किया है।
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