Cheeta

Paperback
Hindi
9789389915662
1st
2020
134
If You are Pathak Manch Member ?

"पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के साढ़े तीन अरब सालों में न जाने कितने क़िस्म के जीव पैदा हुए और मर-खप गये। कॉकरोच और मगरमच्छ जैसे कुछ ऐसे जीव हैं जो हज़ारों-लाखों सालों से अपना अस्तित्व बनाये रखे हुए हैं। जबकि, जीवों की हज़ारों प्रजातियाँ ऐसी रही हैं, जो समय के साथ तालमेल नहीं बैठा सकीं और विलुप्त हो गयीं। उनमें से कुछ प्रजातियाँ ऐसी भी थीं जो पूरी प्रकृति की नियन्ता भी बन चुकी थीं। लेकिन, जब वे ग़ायब हुईं तो उनका निशान ढूँढ़ने में भी लोगों को मशक़्क़त करनी पड़ी। हालाँकि, विलुप्त हुए जीवों ने भी अपने समय की प्रकृति और जीवों में ऐसे बड़े बदलाव किये, जिनके निशान मिटने आसान नहीं हैं। भारत के जंगलों से भी एक ऐसा ही बड़ा जानवर हाल के वर्षों में विलुप्त हुआ है, जिसके गुणों की मिसाल मिलनी मुश्किल है। चीता कभी हमारे देश के जंगलों की शान हुआ करता था। उसकी चपल और तेज़ रफ़्तार ने काली मृग जैसे उसके शिकारों को ज़्यादा-से-ज़्यादा तेज़ भागने पर मजबूर कर दिया। काली मृग या ब्लैक बक अभी भी अपनी बेहद तेज़ रफ़्तार के लिए जाने जाते हैं। इस किताब में भारतीय जनमानस में रचे-बसे चीतों के ऐसे ही निशानों को ढूँढ़ने के प्रयास किये गये हैं। यक़ीन मानिए कि यह निशान भारत के जंगलों में अभी भी बहुतायत से बिखरे पड़े हैं। ज़रूरत सिर्फ़ इन्हें पहचानने की है। भारतीय जंगलों के यान कोवाच की मौत भले ही हो चुकी है लेकिन उनका अन्त नहीं हुआ है। उनके अस्तित्व की निशानियाँ अभी ख़त्म नहीं हुई हैं। / हम धरती पर अकेले नहीं हैं। बहुत सारे जीव-जन्तु और वनस्पतियां हैं, जो हमारे जैसे ही जन्म लेती हैं, बड़ी होती हैं और मर जाती हैं। अपने जीवन भर वे खाने-पीने की जुगत में लगी होती हैं। पोषण से बड़ी होती हैं। अपनी सन्तति को आगे बढ़ाने की फ़िक्र में घुली रहती हैं। अपनी ऊर्जा की एक लकीर अपनी सन्तति में खींचकर वे समाप्त हो जाती हैं। सोचिए, अगर हम अकेले होते। हमारे अलावा कोई भी ऐसा नहीं होता, जिसमें जीवन का स्पन्दन हो। चारों तरफ़ सिर्फ़ निर्जीव चीज़ें ही होतीं। ऐसी दुनिया की कल्पना करना भी मुश्किल है। हमारा अस्तित्व सिर्फ़ इसलिए है, क्योंकि उनका अस्तित्व है। जीवों और वनस्पतियों की इन असंख्य प्रजातियों के बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं है। हमारी हर साँस इसकी क़र्ज़दार या निर्भर है। फिर क्यों हम सिर्फ़ अपने जीवन की शर्त पर सब कुछ को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। क्या जब वे मौजूद नहीं होंगे, नष्ट हो चुके होंगे, तब भी हम इस धरा पर ऐसे ही बचे रहेंगे। ऐसी कोई सम्भावना दिखती तो नहीं है। "

कबीर संजय (Kabeer Sanjay )

कबीर संजय 10 जुलाई 1977 को इलाहाबाद में जन्मे कबीर संजय का मूल नाम संजय कुशवाहा है। पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ।इलाहाबाद(प्रयागराज) के साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल का उन पर गहरा असर रह

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