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विश्वविख्यात कथाकार चेखव की तरह विजयदान देथा ने भी शायद ही कोई उपन्यास लिखा हो। चेखव को यद्यपि आधनिक कहानी का जनक माना जाता है। एक-दो लघु उपन्यासों के अलावा कोई उपन्यास नहीं लिखा, हाँ तीन-चार नाटक जरूर लिखे थे और उनके नाटकों ने भी नाटकों के क्षेत्र में एक नयी प्रवृत्ति तथा प्रविधि का प्रारम्भ किया था।
विजयदान देथा के बारे में यह तथ्य भी जानना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अधिकांश कहानियाँ मूलतः राजस्थानी में लिखी गयी थीं, सबसे पहले-‘बातारी फलवारी' नाम से उनका विशाल कथा ग्रंथ प्रकाशित हुआ था (तेरह खंडों में)। बाद में जब उनकी कहानियों के दो संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुए तो पूरा हिन्दी संसार चौंक पड़ा क्योंकि इस शैली और भाषा में कहानी लिखने की कोई परम्परा तथा पद्धति न केवल हिन्दी में नहीं थी बल्कि किसी भी भारतीय भाषा में नहीं थी। उनकी कहानियाँ पढ़कर विख्यात फ़िल्मकार मणिकौल इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने तत्काल उन्हें लिखा--
"तुम तो छुपे हुए ही ठीक हो। ...तुम्हारी कहानियाँ शहरी जानवरों तक पहुँच गयीं तो वे कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ेंगे। ...गिद्ध हैं नोच खाएँगे। तुम्हारी नम्रता है कि तुमने अपने रत्नों को गाँव की झीनी धूल से ढंक रखा है।" हुआ भी यही, अपनी ही एक कहानी के दलित पात्र की तरह-जिसने जब देखा कि उसके द्वारा उपजाये खीरे में बीज की जगह 'कंकड़-पत्थर' भरे हैं तो उसने उन्हें घर के एक कोने में फेंक दिया, किन्तु बाद में एक व्यापारी की निगाह उन पर पड़ी तो उसकी आँखें चौंधियाँ गयीं, क्योंकि वे कंकड़-पत्थर नहीं हीरे थे। विजयदान देथा के साथ भी यही हुआ। उनकी कहानियाँ अनूदित होकर जब हिन्दी में आयीं तो हिन्दी संसार की आँखें चौंधियाँ गयीं। स्वयं मणिकौल ने उनकी एक कहानी 'दुविधा' पर फ़िल्म बनाई।
- विजयमोहन सिंह
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