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एक दिन लखनऊ के पास छापे में एक घर से कई लोग पकड़े गये। वे सब सिपाही थे। उन्हें पकड़कर, बाँधकर हमारी रेजीमेंट के कमांडर के सामने पेश किया गया। अगले रोज़ ऑर्डर हुआ कि सबको गोली मार दी जाये। उस समय फैरिंग पार्टी मेरे ज़िम्मे थी। मैं उन सिपाहियों को लेकर गोली मैदान गया। सिपाहियों से उनका नाम और रेजीमेंट पूछी। पाँच-छह लोगों के बाद एक सिपाही ने उस रेजीमेंट का नाम लिया, जिसमें मेरा बेटा तैनात था। मैंने उसे पूछा कि वह लैट कम्पनी के अनन्ती राम को जानता है तो उसने कहा कि यह उसी का नाम है। अनन्ती राम बहुत लोगों का नाम होता है इसलिए पहले मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया। एक बात यह भी थी कि मैं मान चुका था कि अनन्ती सिंध में बुख़ार से मर गया है। इससे भी उस सिपाही का नाम अनन्ती होना मुझे नहीं खटका। लेकिन जब उसने अपने गाँव का नाम तिलोई बताया तो मेरा कलेजा हक्क हो गया। आँखें फट गयीं। पैर काँप गये। क्या मेरे सामने खड़ा अनन्ती मेरा ही बेटा है? फिर उस सिपाही ने मेरा नाम लेकर कहा कि वह मेरे बाबू हैं। मैंने उससे कहा कि मैं ही सीताराम हूँ। उसने झुककर मेरे पैर छुए और माफ़ी माँगी। अपनी रेजीमेंट के बाक़ी सिपाहियों के साथ वह गदर में चला गया था और फिर सब लखनऊ आ गये। एक बार जो होना था, हो गया, उसके बाद वह क्या करता? भागना भी चाहता तो कहाँ जाता?
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