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Kaali Aurat Ka Khwab

Irshad Kamil Author
Hardbound
Hindi
9789388434591
2nd
2019
252
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₹425.00
सर्दी अभी पूरी तरह उतरी नहीं थी पहाड़ से। घर के आँगन में देर रात तक बैठा जा सकता था। मैं चारपाई पर बैठा था, अब ऐसा लग रहा है कि वो चारपाई नहीं कटहरा था और मैं बैठा नहीं, खड़ा था उस कटहरे में। मेरे इर्द-गिर्द बहुत से लोग बैठे थे शायद मेरे घर वाले थे या पड़ोसी-रिश्तेदार या मेरे कोई भी नहीं, मुझे ठीक से याद नहीं। मुझे सिर्फ़ मेरे ठीक सामने बैठी अपनी अम्मी याद है। इस बार जिसकी क़ब्र पर फातिहा पढ़ने भी नहीं आये थे मेरे इर्द-गिर्द बैठे कई लोग। शायद समय नहीं निकाल पाये होंगे अपनी व्यस्तताओं से। एक ने पूछा, ‘नौकरी क्यों छोड़ दी?’ दूसरा बोला, ‘बॉम्बे जायेगा।’ तीसरे ने चटखारा लेते हुए कहा, ‘गाने लिखेगा वहाँ जाकर आनन्द बख़्शी बनेगा।’ चौथा अपनी समझदारी दिखाते हुए बताने लगा, ‘गाने लिखके पेट नहीं भरता।’ पाँचवाँ कहने लगा, ‘गाना लिखना कोई काम होता है क्या?’ छठे ने कहा, ‘काम करने का मन हो तब तो काम के बारे में सोचे।’ सातवाँ उचकते हुए बोला, ‘जहाँ काम था वहाँ तो इसने नौकरी छोड़ दी।’ आठवें ने भी अपना मुँह खोलना ज़रूरी समझा, ‘वो भी हमें बिना बताये।’ नौवाँ कहता, ‘हम ही बोले जा रहे हैं उसे भी तो कुछ बोलने दो।’ दसवाँ फिर वही सवाल दोहराने लगा, ‘नौकरी क्यों छोड़ दी?’

इरशाद कामिल (Irshad Kamil)

इरशाद कामिलपंजाब के छोटे से क़स्बे मलेरकोटला में जन्म। पंजाब विश्वविद्यालय से समकालीन हिन्दी कविता पर पीएच. डी. उपाधि। दी ट्रिब्यून समाचार-पत्र समूह और इण्डियन एक्सप्रेस समाचार-पत्र समूह म

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