बालमुकुन्द गुप्त का नाम लेते ही शिवशम्भु के ऐतिहासिक चिट्ठों की याद आती है, जिनकी वैचारिक प्रखरता और विशिट तेवर ने उन्हें हिन्दी साहित्य की अमर कृति बना दिया है। यह एक कृति ही, हिन्दी निबन्ध के इस शीर्ष पुरुष की कीर्ति का स्थायी आधार बन चुकी है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस अद्वितीय रचना की छाया में बालमुकुन्द गुप्त की रचनात्मकता के अन्य सशक्त आयाम धुँधला से गये हैं। इस संकलन में 'शिवशंभु के चिट्ठे' के यादगार निबन्ध तो हैं ही, रेखा सेठी ने प्रभूत शोध और श्रम से इस विस्तृत और बिखरी सामग्री से उन प्रतिनिधि रचनाओं का भी संकलन किया है जो गुप्त जी के व्यापक सरोकारों और वाग्वैदिग्ध्य की उतनी ही प्रखर छवि पेश करती हैं। जिसे ठेठ हिन्दी का ठाट कहते हैं, उसकी छटा इस संकलन की प्रत्येक रचना की पंक्ति-पंक्ति में दिखाई देती है। गुप्त जी ने व्यंग का इस्तेमाल एक नुकीले अस्त्र की तरह किया। उनके व्यंग्य में असहायता की चीख नहीं, सकर्मक चेतना का उद्घोष है। वे तत्कालीन भारतीय समाज की कमियों और कमज़ोरियों पर भी उतना ही तीख़ा वार करते हैं जितना ब्रिटिश शासकों पर। बालमुकुन्द गुप्त पराधीन भारत की वेदना के सक्षम प्रवक्ता और भारतीय समाज की कमियों के कटु आलोचक ही नहीं थे, वरन उन्होंने अपनी ख़ास शैली में साहित्य और भाषा की तत्कालीन समस्याओं पर भी बेलाग विचार व्यक्त किये। इसके कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण भी इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेंगे। हिन्दी की ताक़त और सरोकारों की गहराई का साक्षात्कार करने के इच्छुक पाठक समुदाय के लिए एक संग्रहणीय पुस्तक, जिसे पढ़ने का आनन्द हासिल करने के लिए कभी भी हाथ में लिया जा सकता है।
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