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इस्मत की कहानियों का तर्जुमा आसान नहीं । सबसे भारी मुसीबत है-भाषा, क्योंकि इस्मत की कहानियों में विषय के साथ सबसे चौंकाने वाली चीज़ होती है- 'भाषा' । आप इस अजीबों-गरीब भाषा का क्या करेंगे? ग़ालिब के अशआर का तर्जुमा यदि मुमकिन है तो इस्मत की कहानियों का भी तर्जुमा हो सकता है। मगर आप जानिये, ग़ालिब तो ग़ालिब थे, ग़ालिब का असल मज़ा तो भाषा में है। बस यही इस्मत को भी 'छका' देती है। निगोड़ी, ऐसी अजीबों-गरीब ज़बान का इस्तेमाल करती हैं कि बड़े-बड़ों और अच्छे-अच्छों के पसीने निकल आयें। इस भाषा के लिए अलग से 'अर्थ' की दुकान नहीं खोली जा सकती, इसलिए ज़्यादा जगहों पर इस्मत की ख़ूबसूरत ज़बान से ज़्यादा छेड़-छाड़ की कोशिश नहीं की गयी है। हाँ, कहीं-कहीं हिन्दी तर्जुमा ज़रूरी मालूम हुआ है, तो लफ़्ज़ बदले गये हैं ।
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