आज़ादी के पचहत्तर साल बाद -
भारत के सामने कठोर प्रश्न उपस्थित हैं। सबसे ज़्यादा परेशान करने वाले सवाल हैं रोज़गार और जीवनयापन के; लेकिन हमारे लोकतन्त्र का सवाल अगर उससे ज़्यादा नहीं तो उतना ही आवश्यक है। जब भारत को आज़ादी मिली और उसने दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की राह पर क़दम बढ़ाया तो जनता ने अपने नेताओं और चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से एक ऐसा राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखा जो समता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व के आदर्शों पर खड़ा हो। एक सघन आबादी वाले देश जहाँ पर भारी निरक्षरता और ग़रीबी हो और सिर चकरा देने की तादाद में धर्म, जाति, भाषा की विविधता और आन्तरिक टकराव का इतिहास हो, वहाँ जब यह प्रयोग सफल लगने लगा तो इससे न सिर्फ़ दुनिया के तमाम सदस्यों को हैरानी हुई बल्कि कई देशों में आशाएँ भी जगीं । लेकिन कुछ वर्षों से यह आदर्श आघात सह रहे हैं।
इस किताब में लेखक ने उन प्रमुख मुद्दों पर विचार किया है जिसका सामना भारत को करना है। वे प्रश्न करते हैं कि क्या भारत का भविष्य | एक उत्पीड़ित मन के प्रतिशोध भाव से संचालित होने जा रहा है जो कि हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थकों पर हावी है? क्योंकि भारत ऐसा देश है जहाँ पर अर्थव्यवस्था, राजनीति, मीडिया, संस्कृति और अन्य क्षेत्रों पर हिन्दू ही हावी हैं इसलिए ऐसा हो रहा है। या फिर भारत पर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या अन्य समुदाय के शान्त, विवेकवान, आत्म-आलोचना करने वाले लेकिन आत्मविश्वासी युवा हावी होंगे और ऐसा देश बनाना जारी रखेंगे जो हर किसी को बराबरी का दर्जा प्रदान करे? उन्होंने भारत के जीवन और इतिहास के सन्दर्भ में राम के विचार, छवि और व्यक्तित्व पर चलने वाली बहसों पर विमर्श किया है और विभाजन के परिणामों और अखण्ड भारत की अवधारणा का भी विश्लेषण किया है। वे इस बात पर भी चर्चा करते हैं कि महात्मा गांधी किन मूल्यों के पक्ष और किन चीज़ों के विरोध में थे। वे उन सभी मुद्दों का स्पर्श करते हैं जो आज के भारत में विवाद का विषय बने हुए हैं। इन अवलोकनों के अलावा लेखक 1947 और उससे आगे के भारत के इतिहास पर नज़र डालते हुए इस बात का परीक्षण करते हैं कि हम भारत के लोग एक व्यावहारिक और जीवन्त लोकतन्त्र बने रहने के लिए क्या करें। ऐसा लोकतन्त्र जो इस बात की गारंटी करे कि उसका कोई भी नागरिक न तो पीछे छूट जाये और न ही कोई दमित, अवांछित या असुरक्षित महसूस करे।
सैंतालीस के बाद भारत ( इंडिया आफ्टर 1947) अपने समय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चिन्तक द्वारा राष्ट्र की स्थिति पर किया गया सामयिक अध्ययन है। यह किताब यह बताती है कि हम एक राष्ट्र के रूप में क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए। इसे अनिवार्य रूप से पढ़ा जाना चाहिए।
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