कन्यादान -
'कन्यादान' के कुछ भाग प्रकाशित होते ही समालोचना की आँधी उठ गयी। कोई इसकी प्रशंसा के पुल बाँधने लगा तो कोई कुदाल से इसे ढाने लगा। लेकिन एक बात हुई अवश्य 'कन्यादान' अपने जन्म से ही प्रसिद्ध हो गया। जो इसके विरोधी थे, वे भी इसके आगे का भाग पढ़ने हेतु बेचैन रहने लगे।
इसी समय 'मिथिला' शिथिला होकर सो गयी। 'कन्यादान' के लिए अतिचार का समय आ गया। मगर 'कन्यादान' इतना लोकप्रिय हो चुका था कि उसके सम्बन्ध में प्रकाशक के नाम से चिट्ठी पर चिट्ठी आने लगी। बाध्य होकर उन्हें इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने पर विचार करना पड़ा। उन्होंने मुझसे आगे के भागों की माँग की। जब मेरी एम.ए. की परीक्षा समाप्त हुई तब जाकर तीन साल से अटकी 'कन्यादान' की गाड़ी फिर से सरकी और अन्ततोगत्वा स्टेशन पर पहुँचकर खड़ी हुई। अब जो कुछ भी है, सामने है। पुस्तक के विषय में मैं क्या कहूँ? पुस्तक स्वयं अपने बारे में कहेगी।
समाज का यदि थोड़ा-सा भी उपकार या मनोरंजन यह कर सका तो समझूँगा कि इसका जन्म निरर्थक नहीं हुआ।
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