तीन सौ रामायण -
तीन सौ रामायण बहुभाषाविद्, लोकवार्ताकार, अनुवादक, कवि और अध्यापक रामानुजन द्वारा संसार में रामकथा की अद्भुत विविधतापूर्ण व्याप्ति और इसके भीतर छिपे अर्थ-संसार के विराट-सम्भावना लोक का अत्यन्त ही संवेदनशील दृष्टि से किया गया उद्घाटन है। सहस्रों वर्षों से अनेकानेक संस्कृतियों की अनेक पीढ़ियाँ धर्मों की बाधाओं से परे इस कथा में अपने जीवन अर्थों का सृजन करती आई हैं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस कथा में कितना लचीलापन रहा है। रामानुजन इस लेख में राम-कथा की विविधता के माध्यम से अर्थ-निर्माण और अनुवाद की प्रक्रिया पर भी विचार करते हैं।
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ए. के. रामानुजन के निबन्ध 'तीन सौ रामायण' पर व्यापक विचार-विमर्श एक विडम्बनापूर्ण परिस्थिति में आरम्भ हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने स्नातक स्तर के छात्रों के लिए पाठ्य सामग्री के तौर पर इस निबन्ध को प्रस्तावित किया था। 2008 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध 'शिक्षा बचाओ आन्दोलन' और उससे जुड़े विद्यार्थी संघ ने यह कह कर इसका विरोध शुरू किया कि यह निबन्ध हिन्दू भावनाओं को आहत करता है। यह मामला उच्चतम न्यायालय तक गया जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय को कहा कि चूंकि यह अकादमिक मामला है, इस पर उसे ही निर्णय लेना चाहिए। चार विशेषज्ञों की एक समिति गठित की गई जिसे इस पर अपनी राय देनी थी। चारों ने इसे गहन शोध से युक्त और असाधारण मेधा का उदाहरण माना और इसे छात्रों के लिए पठनीय बताया। एक ने इस पर शंका जताई कि स्नातक स्तर पर इसकी गहनता को अध्यापक और छात्र सम्भाल पाएँगे या नहीं।
2011 के अन्तिम महीनों में बिना किसी फौरी कारण के दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद् ने इस निबन्ध को पाठ्यक्रम से हटा दिया। उसके पहले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने रामानुजन के इस निबन्ध को आगे प्रकाशित न करने का निर्णय भी किया। इन दोनों ही फैसलों का नतीजा यह हुआ कि पूरी दुनिया में यह निबन्ध तेजी से फैल गया और अनेक वेबसाइट, ब्लॉग और अन्य माध्यमों से दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक छात्रों की संख्या से कई-कई गुना लोगों ने इसे पढ़ लिया। 2008 में इसे विवादित बनाए जाने पर वाणी प्रकाशन की पत्रिका वाक् ने इसका एक संक्षिप्त अनुवाद प्रकाशित किया था। अब इसे अविकल रूप में हिन्दी में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह निबन्ध जितना रामकथा के बारे में है उतना ही अनुवाद के बारे में भी। और पढ़ने के बारे में भी। कोई संस्कृति पढ़ने को लेकर कितनी सचेत और संवेदनशील है, इससे उसकी समृद्धि की सूचना मिलती है। 'तीन सौ रामायण' को लेकर जो उत्सुकता चारों ओर दिखाई पड़ी है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस समाज को लेकर अन्तिम तौर पर निराश होने का कारण नहीं है।
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