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दरअसल वाया फुरसतगंज आज़ाद देश में विकसित हो रहे राजनीतिक चरित्र के दोगलेपन की कथा है। इसका यह दोगलापन सर्वव्यापी है और कदाचित इसका असर भी...! इसीलिए इसका प्रसार जीवन के सभी क्षेत्रों में होता दिखाई देता है। इसने हमारे आसपास के रोज़मर्रा के वातावरण को इस कदर आच्छादित कर लिया है कि इसके बिना जीवन की किसी एक गतिविधि का संचालन सम्भव नहीं...! क्या धर्म, क्या समाज, क्या प्रशासन, क्या पुलिस और क्या न्यायपालिका-एक-एक कर सभी इस बदलाव के अभ्यस्त हो चुके हैं। दुर्भाग्य यह कि हम स्वयं इस बदलाव पर आह्लादित होते चलते हैं...! राजनीति को तो निठल्लेपन, डकैती, लूट, मक्कारी, झूठ और निर्वस्त्रता का रोग लग गया है। वह इसे सार्वभौम बना देना चाहती है। वह इस कोशिश में है कि उसके साथ बारी-बारी सब-के-सब निर्वस्त्र होते चलें..! हम भी कहीं-न-कहीं उसके इस अभियान में उसके साथ खड़े दिखाई देते हैं।
ऐसे में वाया फुरसतगंज आधुनिक राजनीति और समाज का वह आईना बनकर हमारे सामने आता है जहाँ हम अपने चेहरे के विद्रूप को ठीक करने और उस पर लगी कालिख को साफ़ करने के बजाय आईने को साफ़ करने की कोशिशों में लगे दिखाई देते हैं। हमारे लिए हर घटना केवल मनोरंजन-मात्र है और इसके अतिरिक्त यदि वह कुछ है तो केवल एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल और आपसी षड्यन्त्र का मैदान भर...! राजनीति का मकसद केवल सत्ता हासिल करना रह गया है और आश्चर्य यह कि भोली एवं बेवकूफ़ जनता, उसके साथ इस खेल में शामिल होकर, बेतहाशा नर्तन करते हुए आत्मविभोर दीखती है। उसका यह बेतुका आत्मसमर्पण न केवल फ़ुरसतगंज बल्कि पूरे देश के निवासियों के रगों में बहने वाले तरल की नियति बनकर रह गया है।
܀܀܀
“राजनीति शेर है और प्रशासन सियार...! दोनों एक साथ एक ही प्राकृतिक वास में निवास करते हैं और ख़ूबी यह कि शेर से हज़ार गुना कमज़ोर होने के बावजूद सदियों से सियार का अस्तित्व बचा हुआ है। क्योंकि सियार और उसके सारे साथी यह बखूबी जानते हैं कि आज भले ही शेर का ज़माना है लेकिन एक दिन उनका भी आयेगा। इसलिए वह शेर के क्षीण और निष्क्रिय होने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं और शेर की क्षीणता का एहसास होते ही स्वयं शेर की खाल ओढ़कर शेर की माफ़िक गुर्राने लगते हैं। जनतन्त्र में जनता की यह मजबूरी बन जाती है कि वह कभी राजनीति को और कभी राजनीति के सियारनुमा रहनुमाओं को अपना राजा और संरक्षक स्वीकार करती रहे। सो, वह इस दफा भी कोई प्रतिकार नहीं करती। शेर अपनी माँद में बैठा असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर यह सब देखता रहता है...
....किन्तु जब जंगल के सारे सियार ऐसा कर रहे होते हैं तो शेर के भीतर जज़्ब मर्दानगी उसे फिर से उकसाती है। शेर जानता है कि एक बार यदि उसके शिथिल होने की ख़बर जंगल में फैली तो दुबारा से उसका समाज अपने खोये वैभव को हासिल नहीं कर पायेगा। फिर क्या...! शेर अपनी पूरी जान लड़ा देता है, वह अपनी माँद से निकलकर अँगड़ाई लेते हुए अपनी दहाड़ का व्यापक प्रदर्शन करता है। पूरे जंगल में शोर मच जाता है और सारे सियार एक बार फिर नतमस्तकमुद्रा में शेर की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं। जनता को अपना खोया हुआ नरभक्षी पुनः वापस मिल जाता है।"
- इसी पुस्तक से
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