प्राचीन भारत में नाटक और रंगमंच की बड़ी समृद्ध परम्परा थी। मध्यकाल में यह परम्परा भंग हो गयी। हिन्दीभाषी क्षेत्रों पर अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना के बाद, अंग्रेजी नाटकों की नक़ल में पारसी नाटकों का आविर्भाव हुआ। और पारसी थियेटर तथा क्षेत्रीय सांगीतिक परम्पराओं के मिश्रण से नौटंकी जैसी नाट्य-विधाओं का जन्म हुआ। पारसी थियेटर और नौटंकी-इन दोनों ही नाट्य-शैलियों की जड़ें समाज में गहरी नहीं थीं। अतएव चलचित्र के आविष्कार के साथ ही ये विलुप्त हो गयीं । आज़ादी के पश्चात् हिन्दीभाषी क्षेत्र में शौकिया रंगमंच (अमेटर थियेटर) का विस्फोट हुआ। इसका विस्तार महानगरों से नगरों और कस्बों तक हुआ । किन्तु दुर्भाग्य से, आज़ादी की इतनी शताब्दियों के बाद भी शौकिया रंगमंच अभी भी शौकिया के दायरे के बाहर नहीं निकल पाया है। आज भी शौकिया नाट्यदल, किसी भी नाटक की एक या दो प्रस्तुतियाँ मंचस्थ करके समझते हैं कि उनका काम पूरा हो गया। और अगली प्रस्तुति के लिए नये नाटक की पाण्डुलिपि की खोज में लग जाते हैं। वे नहीं जानते कि जब तक नाटक की दस-बीस प्रस्तुतियाँ मंचस्थ न हो जाएँ, तब तक अभिनेता अपनी भूमिका की सम्भावनाओं को समझ ही नहीं पाता। विदेशों में तो किसी भी नाटक की सौ-दो सौ प्रस्तुतियाँ आम बात है। कभी-कभी तो नाटक दस-बीस साल तक नियमित रूप से चलते हैं। आज आवश्यकता है शौकिया रंगमंच के अपनी बनायी लक्ष्मण रेखा से बाहर आने की। थोड़ा बड़ा सोचने की। तभी हिन्दी क्षेत्र में नाट्यान्दोलन हाशिये से हटकर समाज के केन्द्र में अपना आधिकारिक स्थान प्राप्त करेगा।
प्रायः शौकिया नाट्यदल अपनी नयी प्रस्तुति के लिए अद्यतन ('लेटेस्ट') नाटक ढूँढ़ते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है। नाटक अखबार नहीं है। नाटक एक कला है। अखबार एक दिन के बाद दूसरे दिन बासी हो जाता है। इसके विपरीत नाटक, जो मानव की सर्वकालिक और सार्वदेशिक भावनाओं और अनुभूतियों पर आधारित होता है, समय के साथ पुराना नहीं पड़ता। इसीलिए चार सौ वर्ष पुराने शेक्सपियर के नाटक 'हैमलेट' तथा सौ साल पुराने इब्सन के नाटक 'डॉल्स हाउस' से उतना ही आनन्द आज के दर्शक लेते हैं, जितना तत्कालीन दर्शक लेते होंगे। थियेटर के लिए हिन्दीभाषी समाज की व्यापक स्वीकृति प्राप्त करने के लिए शौकिया रंगमंच के कर्णधारों को अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा ।
'साँझ-सबेरा' नाटक में शाश्वत और तात्कालिक मूल्यों के द्वन्द्व के साथ पीढ़ियों का संघर्ष भी रूपायित है । ये द्वन्द्व हर युग में, हर काल में और हर पीढ़ी में सतत चलता रहता है। इस कारण मैं समझता हूँ कि यह नाटक कभी पुराना नहीं होगा, और सदा प्रासंगिक रहेगा ।
- दया प्रकाश सिन्हा
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